आनंदी की मौत से पत्रकारिता आहत

आनंदी..छोटे पर्दे का बड़ा नाम...पिछले दिनों उसकी मौत हो गई...देश के कई घरों की चहेती बहु की मौत से खासकर महिलाओं को सदमा लगा...लेकिन यह सब ड्रामे का हिस्सा था..जो टीआरपी बढ़ाने के स्टंट से बढ़कर कुछ नही था...लेकिन इस खेल में कहीं पत्रकारिता का गला घोंटा जा रहा था...देश का एक न्यूज़ चैनल इस ड्रामेबाज़ी को दिनभर कैश करने में लगा था...क्या आनंदी मर जाएगी? जैसे सवाल उठाकर पत्रकारिता को आहत किया जा रहा था...उस दिन 'देश का सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ चैनल' खबरों के नाम पर कंगाल हो गया था शायद...इस बीच एक हेडर फ्लैश हुआ 'कहीं आनंदी की मौत ड्रामा तो नहीं'?...एक मनोरंजन चैनल ड्रामा नही दिखाएगा तो क्या दिखाएगा, वो चैनल पूरी इमानदारी से लोगों का मनोरंजन करने में लगा है और न्यूज़ चैनल के नाम पर न्यूज़ के अलावा सबकुछ दिखा रहे इन चैनल्स की मानसिकता को क्या हो गया है...उनके दिवालिएपन पर हंसी भी आती है और रोना भी...और यह हाल सिर्फ एक दिन का नही है...टीआरपी के पीछे भागने वाले यह चैनल महिला आरक्षण बिल की बजाए राहुल महाजन की दुल्हनियां पर ज्यादा फोकस करते हैं.... खैर यह इंडिया का न्यूज़ चैनल है भैया..यह तो यही सब दिखाएगा..और हर साल सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ चैनल का अवॉर्ड पाएगा...

उपरोक्त विचार पूर्णतया मेरे निजी है और किसी की भावनाओं को आहत करना मेरा मकसद नहीं...लेकिन
ज़रा सोचिए....सवाल आपके मनोरंजन का है....सवाल आपका है...?

4 टिप्पणियाँ:

राजीव कुमार ने कहा…

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जनाब... इसके पहले भी कई बार खबरों का गला घोंटा जा चुका है। खबरें मरती रही हैं और तमाम न्यूज़ चैनल 'न्यूड' चैनल की हरकत करते रहे हैं। पत्रकारिता तो बस किसी तरह अपने आप को जिंदा भर रखे हुए है वो भी मुट्ठीभर पत्रकारों के बदौलत... है न?

रानीविशाल ने कहा…

Bilkul sahi baat kahi hai aapane News channels par news ke alawa sab kuch hota hai....waha bhi pura drama hi chalata rahata hai TRP ko prathamikta di jaati hai sacchi patrakarita to gaun ho gai hai..!!

बेनामी ने कहा…

हितेश जी बिल्कुल सही कहा आपने , आप पत्रकारीता को लेकर संजीदा है इसके लिए साधुवाद
मगर सवाल आपका नहीं है, सवाल ये है कि न्युज चैनलो के चुतियापे को सुधारने का मतलब बिल्ली के गले मे घंटी में कौन बांधे ,वाली स्थिति ,वाया पत्रकारीता टेलीविजन पर दिखने का जूनून की सब कुछ करवा रही है .दधीची कौन बने की वज्र तैयार हो
अफसोस की बात ये है कि भगत सिंह को सभी चाहते है मगर वह पड़ोसी का लौंडा हो हमारा नहीं -कबीर बनने में ही भलाई है
ना काहु से दोस्ती ना काहु से बैर .

pritam ने कहा…

बिल्कुल सही कहा है और लिखा हैं आपने चाहे वह एनडीटीवी इंडिया हो या आज तक सभी ने मंहगाई ,बेरोजगारी , बढ़ती आर्थिक असमानता को छोड़कर आनंदी, और ललिया जैसे करेक्टर को ही टीआरपी गेटिंग चरित्र मान बैठे हैं

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