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किसानों के दर्द से कराही राजधानी
इस जनादेश के मायने...
बेटा साइकिल चलाना सीख गया
मेरा बेटा 5 साल का है.. सभी बच्चों की तरह शरारती है चंचल है और ढेर सारे भारी भरकम सवाल भी करता है.. खैर यहां मुद्दा ज़रा जुदा है.. पिछले हफ्ते की बात है वो साइकिल चलाना सीख गया.. इसमें कोई अजूबे वाली बात नहीं है.. हर बच्चा सीखता है.. हम भी सीखे थे आप भी सीखे थे.. ताज्जूब इस बात का है कि वो बिना किसी की सहायता के साइकिल चलाना सीख गया.. मैनें भी सीखी थी लेकिन पिताजी पीछ-पीछे दौड़ा करते थे एक हाथ से साइकिल का कैरियर पकड़ कर और मुझे लगता था कि मैं तीसमार ख़ां साइकिल चला रहा हूं.. बीच में जैसे ही पिताजी हाथ छोड़ते तो थोड़ी दूर लड़खड़ाते हुए जाने के बाद अक्सर धम्म से गिर जाया करता था.. ये बीते हुए कल का गहरा फलसफा था कि बाप के सहारे के बिना एक कदम भी चल पाना कितना दुभर था और शायद यही छोटे-छोटे कारण है कि आज
भी ज़िंदगी के हर पड़ाव पर पिताजी के साथ होने का एहसास, सुरक्षित होने का सुकून देता है .. लेकिन आज कमबख्त technology ने हर रिश्तों की मिठास को फीका कर दिया है.. emotions भी प्लास्टिक के बना दिए गए हैं.. मैं यहां ये नहीं कह रहा कि आज बचपन में बच्चों को बाप के सहारे की ज़रूरत नहीं... ज़रूरत है लेकिन नए परिवेश में, नए आवरण में.. अब साइकिल चलाने की बात ही ले लिजिए.. तकनीक ने साइकिल को ऐसा modify किया कि बाप को साइकिल सीखते बच्चे के पीछे दौड़ना नहीं पड़ता... बच्चे ऐसे ही सीख जाते हैं जैसे मेरा बेटा सीख गया...मैं चाहकर भी उसके पीछे नहीं दौड़ सका.. वैसे बेटे के इतना जल्दी साइकिल सीखने की मुझे बेहद खुशी है लेकिन जिम्मेदारी और सुरक्षा का भाव लिए अपने बच्चे के पीछे उसे सहारा देने के लिए नहीं दौड़ पाने का मलाल भी है और डर भी कि कहीं इसी तरह तकनीक के जादूगरों के नए-नए इजाद जिंदगी के हर पड़ाव में बाप होने के एहसास को धुमिल ना करते जाएं और रिश्तों की अहमियत कम होती जाए.. शायद में कुछ ज्यादा ही possessive हो रहा हूं.. लेकिन हालात भी तो कुछ ऐसे ही बनते जा रहे हैं.. पहले हम खाली समय में पिताजी की गोद में बैठकर उनकी मूंछ के बालों से खेला करते थे और अपने ऊटपटांग सवालों पर भी उनसे सही जवाब की इच्छा रखते थे और यक़ीन मानिये जवाब मिलता भी था.. आज बच्चे cartoon network पर ना जाने कौन-कौन से cartoon character को अपना Maximum समय समर्पित कर देते हैं... एक अलग दुनिया बन गई है..और ये दायरा, ये फासला समय के साथ बढ़ता जाता है.. पिताजी पापा से डैड बन जाते हैं और फिर generation gap का उदाहरण भी...शायद जैसा मैनें ऊपर ज़िक्र भी किया हमें अपने आप को नए परिवेश में ढालना होगा, नए आवरण को ओढ़ना होगा.. उच्च तकनीक के साथ तेजी से भागते समय के साथ हमें भी दौड़ लगानी होगी.. ताकी 'हम' बच्चों की उंगली पकड़ कर चल सकें...
मतदाता सम्मान हो तो बात बने
"द लेडी"
"अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र की नींव है, अगर आप बदलाव चाहते हैं तो आपको सही रास्ते पर चलना होगा"- आंग सांग सू ची
क़रीब दस बरस गुज़र गए, उन्होंने अपने दोनों बेटों को नहीं देखा है। वे दादी बन चुकी हैं, लेकिन अब तक अपने पोतों को गले से नहीं लगा सकी हैं। पिछले 21 में से 15 बरस उन्होंने अपने घर की चहारदीवारी में नज़रबंदी में काटे हैं। इस दौरान सारी दुनिया से वो कटी रहीं। न किसी से बात करने की इजाज़त, न फ़ोन का कनेक्शन और न ही दुनिया की ख़बर रखने के लिए इंटरनेट। साथ के नाम पर बस दो महिला सहयोगी और कभी-कभार मिलने वाले डॉक्टर और वक़ील।
ये कहानी है ‘द लेडी’ की। जी हां, उस मुल्क़ में द लेडी तो सिर्फ़ आंग सांग सू ची ही हैं। दो दशकों से भी ज़्यादा वक़्त हो गया, वो म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के लिए शांतिपूर्ण तरीके से अपनी आवाज़ रख रही हैं। उस सैन्य शासन के ख़िलाफ़, जो क़रीब 50 बरसों से म्यांमार में जमा हुआ है। अब भी बर्मा की अवाम की उम्मीद हैं, आंग सांग सू ची। 65 वर्षीय, बेहद शांत, मीठा बोलने वाली आंग सांग सू ची को 1991 में शांति के लिए नोबल पुरस्कार से भी नवाज़ा जा चुका है। म्यामांर के नेशनल हीरो रहे आंग सांग की ये बेटी पूरी जीवटता और जज़्बे के साथ सैन्य शासन के ख़िलाफ़ लोहा ले रही है। शनिवार को उनकी नज़रबंदी ख़त्म हो गई, जैसे ही वे अपने घर से बाहर निकलीं, उनके समर्थकों के बीच ख़ुशी की लहर दौड़ गई। सू ची की आंखों में अब भी वही चमक थी, अब भी अपने देश में लोकतंत्र की स्थापना का ख़्वाब उतना ही मुखर था। बकौल अमरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, वे उनके नायकों में से एक हैं। दुनिया भर में सू ची की रिहाई का स्वागत हो रहा है।
सू ची ने तानाशाही के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण और अनूठे तरीके से लड़ाई लड़ी है। एक सादगी भरा पारिवारिक जीवन जीने वाली महिला का पहले नेता बनना और फिर दुनिया के सबसे मशहूर क़ैदी में तब्दील हो जाना इसी का हिस्सा रहा है। उनकी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (NLD) ने 1990 के आमचुनावों में भारी बहुमत हासिल किया था, लेकिन वहां के शासक ने इन नतीजों को नहीं माना। सैन्य शासन जारी रहा, सू ची ने लंबा वक़्त नज़रबंदी में गुज़ारा। पढ़कर और पियानो बजाकर। 2003 में उनका बड़ा ऑपरेशन भी हुआ, जिसके बाद उन्हें घर में क़ैद कर दिया गया।
1990 के बाद बर्मा में 7 नवंबर को फिर चुनाव हुए। सू ची की पार्टी ने चुनाव की नियमावली पर सवाल उठाते हुए चुनाव में हिस्सा नहीं लिया। पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने नेशनल डेमोक्रेटिक फोर्स का गठन कर चुनाव में उतरने का फ़ैसला लिया। उनका मानना रहा कि बहिष्कार से लोकतंत्र की राह आसान नहीं रह जाएगी। लेकिन नतीजा वही रहा, सेना के समर्थन वाले नेशनल सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट एसोसिएशन ने जीत हासिल कर ली है। संयुक्त राष्ट्र संघ और पश्चिमी देशों ने चुनाव की पारदर्शिता पर सवाल उठाए हैं।
बात सिर्फ़ इतनी है कि हम ज़रा ज़रा से मसलों पर टूटने लगते हैं। इतना सब सहने के बाद भी वे अपने समर्थकों से कहती हैं कि 'उन्हें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए, ना ही अपना दिल छोटा करना चाहिए'। वे कहती हैं, ‘सुनने और कहने का एक तय वक़्त होता है’। वे अब भी कहती हैं कि ‘हिम्मत हारने की कोई वजह नहीं है’। वे 'शांतिपूर्ण क्रांति' चाहती हैं, वे जानती हैं कि सरकार उन्हें किसी भी वक़्त फिर नज़रबंद कर सकती है और वे इसके लिए तैयार भी हैं। उन्हें भरोसा है कि म्यांमार में लोकतंत्र ज़रूर आएगा, भले ही इसमें वक़्त लगे। लोकतंत्र की बहाली लिए लड़ रही ‘द लेडी’ के जज़्बे को सलाम।।
बातें बालाघाट की: पहली किस्त
मैं बात कर रहा हूं, बालाघाट की। मध्य प्रदेश का एक ज़िला है बालाघाट। मैंने यहीं जन्म लिया है। महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा पर बसा एक शांत और ख़ूबसूरत शहर। प्रकृति यहां किस कदर अपनी ममता लुटाती है, ये शब्दों में कह पाना तो मुश्किल है। लेकिन कभी अगर आप यहां आएं तो पाएंगे कि सतपुड़ा की सरपरस्ती बालाघाट की ख़ूबसूरती में चार चांद लगा देती है। कुदरत का अकूत ख़ज़ाना यहां की ज़मीन में दबा हुआ है। एशिया की सबसे बड़ी कॉपर की खुली खदान इसी ज़िले के मलाजखंड में है। भरवेली अपने स्तरीय मैगनीज़ के लिए दुनिया भर में मशहूर है। इसके अलावा पूरे ज़िले में कहां-कहां मिट्टी अपने अंदर क्या-क्या समेटे हुए है, कहना मुश्किल है। संसाधनों की बात करें तो यहां का बांस भी विश्वस्तरीय है, जिसकी दुनिया भर में ख़ासी मांग है। यहां का सागौन काफ़ी उन्नत श्रेणी का है। यहां का उत्कृष्ट कोटि का चावल भी अपनी अलग ही पहचान रखता है। खेती के लिए यहां की ज़मीन उपजाऊ है, पानी की कोई कमी नहीं है। वन संपदा के लिहाज़ से भी बालाघाट काफ़ी समृद्ध है। कुल मिलाकर पहली नज़र में इस ज़िले की एक ख़ुशनुमा तस्वीर उभरकर सामने आती है, जो किसी भी क्षेत्र की तरक्की के लिए पहली ज़रूरी शर्त है।
इतना सब होने के बाद भी, आज़ादी के इतने बरसों के बाद तरक्की की दौड़ में बालाघाट कहीं नहीं है। सरकार रेवेन्यू का बड़ा हिस्सा यहां से हासिल करती है, लेकिन यहां के विकास के नाम पर अगर ईमानदारी से सोचा जाता तो आज शायद तस्वीर कुछ और ही होती। लेख की शुरुआत में ही मैंने बालाघाट के नेतृत्व का ज़िक्र किया है, वो इसलिए क्योंकि राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव हमेशा ही यहां विकास में रोड़ा बनता रहा है। आज़ादी के बाद जाने कितने सांसद हुए, कितने ही विधायकों को राज्य मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व करने का मौक़ा मिला, लेकिन विकास को लेकर शायद ही कोई सियासतदां संजीदा हुआ हो। बात चाहे भोलाराम पारधी की हो, चिंतामनराव गौतम की, पीसीसी के अध्यक्ष रह चुके नंदकिशोर शर्मा की हो या विधानसभा के अध्यक्ष रह चुके तेजलाल टेंभरे की हो, कोई भी अपने क़द के मुताबिक़ बालाघाट के साथ न्याय नहीं कर सका। इसके अलावा शंकरलाल तिवारी, थानसिंह बिसेन, एनपी श्रीवास्तव, मधुसूदन गौतम, राणा हनुमान सिंह, सुरेंद्र खरे, विपिन पटेल, रमणीक लाल त्रिवेदी, लोचनलाल ठाकरे, यशवंतराव खोंगल, ओझा भाऊ रहांगडाले, नीलकंठ बनोटे, कचरूलाल जैन, मोतीराम ओड़गू, लोचनलाल ठाकरे, भुवनलाल पारधी, मुरलीधर असाटी, कन्हैया लाल खरे, चित्तौड़ सिंह, महिपाल सिंह उईके, प्रताप लाल बिसेन, झनकार सिंह नगपुरे, दिलीप भटेरे, लिखीराम कावरे आदि ने भी लंबे समय तक जिले की बागडोर अपने हाथ में रखी (सभी नेता दिवंगत हैं) । सभी अपने आप में बड़े नाम थे, शिखर पर बैठे राजनीतिज्ञों से इनकी ख़ूब बनती थी। जिले के विकास के लिए ये दोस्ती कभी काम आई हो, ऐसा देखने को नहीं मिला। मौजूदा राजनीतिज्ञों की बात करें, तो बालाघाट विधानसभा से विधायक और राज्य सरकार में काबीना मंत्री गौरीशंकर बिसेन लंबी पारी खेल चुके हैं और सर्वमान्य नेता हैं। कटंगी से विधायक विश्वेश्वर भगत दो बार सांसद रह चुके हैं, अर्जुन सिंह सरकार में मंत्री रह चुके हैं। बालाघाट के मौजूदा सांसद केडी देशमुख पहली बार दिल्ली गए हैं, लेकिन पांच मर्तबे विधानसभा में जनता की नुमाइंदगी कर चुके हैं। लगातार हार का सामना कर रहे तेज़ तर्रार नेता कंकर मुंजारे के तेवर मध्य प्रदेश विधानसभा में कई बार देखे गए हैं। उनकी पत्नी अनुभा मुंजारे भी लगातार दो बार बालाघाट नगर पालिका का नेतृत्व कर चुकीं हैं। वारासिवनी विधायक प्रदीप जायसवाल तीसरी बार विधायक बने हैं। जनता के बीच ख़ासे लोकप्रिय हैं, लिहाज़ा वारासिवनी नगर पालिका में अपनी पत्नी को अध्यक्ष बनवाने में क़ामयाब रहे। बैहर से विधायक भगत नेताम भी अपने पिता सुधनवा सिंह नेताम की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। बैहर से ही विधायक रह चुके पूर्व मंत्री गणपतसिंह उईके का जादू अब ख़त्म सा हो गया है। इधर लांजी विधानसभा में पूर्व मंत्री दिलीप भेटेरे के युवा पुत्र रमेश भटेरे विधायक हैं। परसवाड़ा से भी युवा विधायक रामकिशोर कावरे युवा हैं, पहली बार विधानसभा पहुंचे हैं। कटंगी से ही दो बार विधायक रहे पूर्व मंत्री तामलाल सहारे इन दिनों मौक़े की तलाश में हैं। परिसीमन से पहले वजूद में रही खैरलांजी सीट से मंत्री रहे बाबा पटेल कहां ग़ायब हैं, पता नहीं।
कुल मिलाकर नेताओं की लंबी फेहरिस्त है। सभी बड़े नाम हैं। फिर ज़िले का नाम बड़ा क्यों नहीं है, अहम सवाल है। आज़ादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस सत्ता में रही है, और बालाघाट को कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है। विधानसभा की 6 सीटों (परिसीमन से पहले 8) पर कांग्रेस का वर्चस्व हुआ करता था। बालाघाट को कमलनाथ के प्रभाव वाला ज़िला माना जाता है। ये कितना सच है, कहा नहीं जा सकता। लेकिन हां, कांग्रेस का पत्ता भी कमलनाथ के इशारे के बग़ैर नहीं हिलता, ये बात सौ फ़ीसदी सही है। नाथ साहब जब भी बालाघाट आते हैं, इसे गोद लेने की बात कह देते हैं। जनता ख़ुश हो जाती है, ख़ूब तालियां पीटती हैं। वैसे मैंने एक बात जो बहुत शिद्दत से महसूस की है, वो ये है कि कमलनाथ बालाघाट में कांग्रेस की कमान ऐसे हाथों में रखना चाहते हैं, जो उनके दरबार में सिर्फ़ सिर झुकाकर खड़े रहना जानते हों। टिकटों के बंटवारे में ये बात साफ़ दिखती है, जिताऊ उम्मीदवार कांग्रेस की टिकट शायद ही हासिल कर पा रहे हों। चाटुकारिता की इस गंदी राजनीति में बालाघाट को बहुत नुक़सान हुआ है। न ही अच्छे नेता मिल सके, न ही विकास हो सका।
बात भाजपा की करें, तो कोई शक़ नहीं... ज़िले की राजनीति में इस समय भाजपा ड्राइविंग सीट पर है। पार्टी के दिग्गज नेता गौरीशंकर बिसेन ख़ुद सरकार में मंत्री है। अनुभवी नेता केडी देशमुख पार्टी से सासंद हैं। ज़िले के अंधिकांश भाजपा विधायक युवा हैं। शिवराज सरकार की दूसरी पारी है, जिसके मुक़ाबले ज़िले में काम हो रहे हों, ऐसा दिखता तो नहीं। सभी नेता बहुत जल्दबाज़ी में दिख रहे हैं, अब उन्हें ही जल्दी है तो जनता भला क्यों देर लगाएगी। मिलते हैं 2013 में।
इस वक़्त ज़िले की राजनीति में जितने भी अनुभवी नेता हैं, वो अपनी विदाई का इंतज़ार कर रहे हैं। लेकिन नया नेतृत्व असरदार तरीके से आ नहीं रहा है, सो वो भी डटे हुए हैं। एक समय था, जब सत्तर के दशक में रामस्वरूप शुक्ला की अगुवाई में युवा तरुणाई की ऐसी आंधी चली कि भोपाल तक इसकी गूंज सुनाई दी थी। शुक्ला ने कांग्रेस से युवाओं को विधायक की टिकटें भी दिलवाई, लेकिन राजनीतिक तौर पर वे विफल रहे। मैं बालाघाट में हुए एक कार्यक्रम में गया था, जहां शुक्ला जी भी मौजूद थे। जब उनसे मार्गदर्शन के तौर पर दो शब्द कहने को कहा गया तो उन्होंने साफ़ कहा था कि जिसे ख़ुद ही मार्ग के दर्शन नहीं हुए, वो दूसरो को क्या मार्गदर्शन देगा? उनकी पीड़ा सहज ही समझी जा सकती थी। उसी दौर के युवा तुर्क अशोक मिश्रा, इंदर चंद जैन सरीखे नाम भी नेपथ्य में गुम हो गए।
सही नेतृत्व न होने का एहसास हमें इसलिए कचोटता है, क्योंकि दुनिया तेज़ी से आगे बढ़ रही है और मुट्ठी भर राजनीतिज्ञों ने आज तक हमारे ज़िले से छल ही किया है। यक़ीन मानिए वक़्त करवट ले रहा है, नया ख़ून सुनियोजित तरीक़े से दस्तक दे रहा है। वो दिमाग़ रखता है, तकनीक से लैस है, मूल्यों को समझता है, विरासत को आगे बढ़ाना जानता है, तरक्की पसंद है। अपने बालाघाट को और सहते वो नहीं देख पाएगा। कहीं ऐसा न हो अगला चुनाव जमे हुए राजनीतिज्ञों की ज़मीन ही छीन ले।
“झुक के मिलते हैं तो कमज़ोर ना समझना, शाख फलदार हो तो लचक आ ही जाती है।”
(लेखक युवा पत्रकार हैं, फिलहाल दैनिक भास्कर, भोपाल में हैं )
एक चव्हाण गए, दूसरे आए
तो भईया, नप गए चव्हाण। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की लंबे समय से टल रही विदाई आख़िरकार हो ही गई। उनकी जगह 7 रेस कोर्स के क़रीबी और गांधी परिवार के नज़दीकी माने जाने वाले पृथ्वीराज चव्हाण सूबे की कमान संभालेंगे। हम भूले नहीं है, किस तरह विलासराव देशमुख की विदाई के बाद महाराष्ट्र के लिए नए नेतृत्व के तौर पर साफ़ छवि के बेदाग़ और कद्दावर नेता की तलाश की जी रही थी। इसी सियासी कसरत की खोज थे, अशोक चव्हाण। जो राज्य की देशमुख सरकार में मंत्री तो थे ही साथ ही सूबे के रसूख़दार राजनीतिक खानदान के वारिस थे। लेकिन जिस तरह से आदर्श सोसायटी घोटाले में कथित तौर पर उनका नाम आया, उससे उनकी छवि पर बट्टा तो लगा ही साथ ही उनका पद भी चला गया।
सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस वाकई दाग़दार छवि के लोगों को बाहर का रास्ता दिखाना चाहती है, जैसा उसने चव्हाण और कलमाडी को बाहर कर किया या ये महज़ उस हंगामे को दबाने की क़वायद है, जो शीतकालीन सत्र में हो सकता है। यक़ीनन, कांग्रेस ने इस क़दम से नैतिक तौर पर बढ़त हासिल कर ली है और विपक्ष को मुद्दाविहीन कर दिया है। भ्रष्टाचार को लेकर विपक्ष का हथियार फिलहाल तो भोथरा ही दिखाई देता है। 2G स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर आरोपों से घिरे ए राजा को लेकर कांग्रेस की क्या रणनीति होती है, ये ग़ौर फ़रमाने वाली बात होगी। यहां तो मामला घर का था, लेकिन वहां गंठबंधन का लिहाज़ रखना होगा। कांग्रेस की अपनी मजबूरियां भी हैं, सो पता चल जाएगा कि क्या पार्टी वाकई दाग़ियों को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है?
बात महाराष्ट्र की करें, तो पृथ्वीराज चव्हाण बेहद मुश्किल वक़्त में राज्य की बागडोर संभाल रहे हैं। फिलहाल वे राज्यसभा से सांसद है। केंद्र की राजनीति के साथ उनका लंबा संसदीय कार्यानुभव भी है, लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति में उनका दख़ल न के बराबर रहा है। तिस पर राज्य में सत्ता में सहयोगी एनसीपी के नेता शरद पवार से भी उनके बहुत अच्छे ताल्लुक़ात नहीं हैं। लिहाज़ा देखना होगा किस तरह वे गठबंधन की गाड़ी को हांकते हैं? वैसे उनका कहना है कि वे केंद्र में रहकर काफ़ी क़रीब से गठबंधन सरकार को देख चुके हैं और जानते हैं इस धर्म का पालन कैसे किया जाना है? लेकिन चुनौतियां तो फिर भी हैं, राज्य में किसानों की हालत बदतर है। गांवों में बिजली संकट है। कई पुराने और अनुभवी चेहरों को दरकिनार कर उन्हें सत्ता का ताज सौंपा जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे ख़ुद और अपने आकाओं को सही साबित करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखेंगे।।
अब देर नहीं लगती...
हर मील पे देखा है, पत्थर को बदलते
अपने सफ़र पे हमको, जमकर रहा ग़ुमान
सहमे हुए सुनते हैं, औरों के तजुर्बे
लो देख ली दुनिया, लो कुछ नहीं हासिल
रक़ाब पर लिहाज़ा, हम पांव नहीं रखते
मुमक़िन है तुमको ना हो, इस हश्र पर यकीं
होता तुम्हें भी पास, इस राह ग़र गुज़रते
- निशांत बिसेन
अबके जो मिले, तो क्या ख़ूब मिले...
ख़ैर, ब्लॉग पर लंबे समय के बाद मौजूदगी दर्ज करा रहा हूं। जहां तक याद पड़ता है, पिछले लिखे और इस लिखे के दरमियां तक़रीबन 4 महीनों का फ़ासला है। लिखना छूट सा गया है। आज न जाने क्या सूझी, सफ़र की थकान को नज़रअंदाज़ करते हुए मैं लिख रहा हू। यक़ीन नहीं हो रहा है।
पता है, इस बार की छुट्टियों में सबसे ख़ास बात क्या रही... मैं स्कूल, कॉलेज, मोहल्लों और शहर के उन तमाम दोस्तों से मिला, जो लंबे समय से पाए ही नहीं जा रहे थे। अभी कुछ ही बरस तो गुज़रे हैं, हम इकट्ठे साइकल पर सवार होकर शहर भर घूमा करते थे। ताज़ा ख़बर ये है कि यारों के दिन फिर गए हैं। ज़्यादातर दोस्त प्रशासनिक सेवाओं में चले गए हैं। कुछेक डॉक्टर हो गए हैं, कुछ वक़ीलों की, तो बहुतेरे इंजीनियरों की जमात में शामिल हो गए हैं। कुछ स्थानीय राजनीति में पैठ जमाने की जद्दोजहद कर रहे हैं, तो कुछ ने साबित कर दिया है कि वे अपने पुश्तैनी कारोबार को बेहतर तरीके से आगे बढ़ा सकते हैं। पत्रकार मैं अकेला हूं। सबसे मिलना दिल को सुकून दे गया। एक अजीब सी बेचैनी, एक दिल को दुखाने वाला खालीपन, जो हर वक़्त महसूस होता रहता है... वो इस दौरान जाता रहा।
बहुत लंबा वक्त नहीं बीता है, मुझे घर छोड़े या नौकरी थामे। शायद यही वजह है कि दोस्तों, परिवार वालों, रिश्तेदारों या किसी के भी छूटने पर दर्द बयां न करने का सलीका मुझमें अब तक नहीं आ सका है। हम तो कहते हैं साहब कि न ही आए तो बेहतर है। इस प्रवास के दौरान एक बात जो मैंने शिद्दत से महसूस की.. वो ये रही कि मैं घर लौट जाना चाहता हूं। इस हसरत को पूरा करने की क़ीमत क्या हो सकती है, इसका अंदाज़ा मुझे है।
तो बात यारों की हो रही थी। यार अब भी चाहते हैं कि मैं अपने शहर लौटकर राजनीति में किस्मत आज़माऊं। अब यारों का कहना है तो सही ही होगा। यार भी कभी ग़लत हुए हैं भला? वैसे भी कैलकुलेशन करके ज़िंदगी की राहों पर तो कम से कम नहीं चला जा सकता। अब तक का रास्ता वैसे भी बिना हिसाब-किताब के कटा है। मेरा मानना है कि अगर मेहनत की जाए तो मैं अपने मौजूदा पेशे यानी पत्रकारिता में काफ़ी क़ामयाब हो सकता हूं (बेहद निजी राय है)। पत्रकारिता से सियासत में जाना, आप सोचेंगे बड़ा महत्वाकांक्षी आदमी है। चलिए मान लिया मैंने कि मैं महत्वाकांक्षी हूं, इसमें बुराई भी क्या है? वैसे ही सियासत मवालियों और नाक़ाबिलों के हाथों में है। हम जैसों के पास कम से कम महफ़ूज़ तो रहेगी। मैं ये नहीं समझ पाता कि क्यों मेरे पिता को इससे इत्तेफ़ाक रहता है कि मैं सियासत में हाथ आज़माऊं? क्यों मां को इस शब्द से ही नफ़रत है? आख़िर क्यों मेरे पड़ोसी सबसे मिलने के मेरे बेतकल्लुफ़ मिज़ाज को लेकर अपनी रातों का सुख-चैन लुटाते हैं? क्या इतना बुरा है राजनीति में जाने का सोचना भी?
ये तो एक भाव था, आया सो लिख दिया। फिलहाल तो पैसों और नौकरी दोनों की दरकार है। फ़ैसला सोच-समझ कर लेना है।
इस दफ़ा जब घर पर था, एक जनाब मिले। उनकी पीड़ा ये थी कि बालाघाट (मेरा गृह ज़िला, मध्य प्रदेश की राजधानी से तक़रीबन 500 सौ किमी की दूरी पर बसा बेहद ख़ूबसूरत और उपेक्षित शहर)को सही तरीक़े से पेश नहीं किया जाता। भई इस दिशा में आप कुछ करते क्यों नहीं, राजधानी में पत्रकार हैं? मुझसे अनायास ही पूछा गया ये सवाल उस वक़्त तो मुझे निरुत्तरित कर गया... लेकिन पड़ताल में जुटा हूं। बालाघाट को लेकर कुछ ख़ास तथ्य और रोचक बातें लेकर जल्द आपके सामने आऊंगा। यक़ीन मानिए, सतपुड़ा की गोद में बसे इस बेहद ख़ूबसूरत शहर को जानबूझकर उपेक्षित रखा जा रहा है।
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मेरे गांव में लक्ष्मी पूजा के तीसरे दिन गाएं खेलती हैं। आप सोचेंगे ये क्या, गाएं कैसे खेलती होंगी? दरअसल, इस ख़ास दिन पूरे गांव के मवेशी एक जगह इकट्ठे किए जाते हैं। यहां चरवाहा और उस समाज विशेष के लोग गौ माता की पूजा करते हैं। सारे मवेशियों की जमकर ख़ातिरदारी होती है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश के गांवों में होने वाले इस उत्सव की धूम का अंदाज़ा आपको हो रहा होगा। वैसे हम जैसे पढ़े-लिखे, समझदार लोगों ने इन उत्सवों से दूरी बना ली है।
एक और बात, मुझे भोपाल आए तीन महीने ही हुए हैं। इससे पहले वाला ठौर यानी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर अब भी बहुत याद आता है। उस धूल-माटी वाले शहर से दिल लग सा गया था, वहां के साथियों को छोड़ने का सोग़ अब तक है। ख़ैर, ज़िंदगी है.. फिर मिलेंगे। लेख पढ़ने में आपको बेढंगा लग सकता है, क्या करूं... बेतरतीबी छिपाए नहीं छिपती।।
- निशान्त बिसेन
खेल खत्म….खेल शुरू......पर क्या निकलेगा कोई नतीजा ?
खेल खत्म हो गए पर असली खेल तो अब चालू हुआ है.....जो खेल हुआ उसमे भले ही भारत की जय हुई हो....पर अब जो खेल चल रहा है उसमे अगर कोई हारेगा तो भारत..इस खेल में जितना सच सामने आएगा उतनी भारत की नाक पूरे विश्व के सामने कटेगी और ये खेल भी बहुत खतरनाक है इस खेल में अपनों को ही अपने देश से गद्दारी करने की सजा मिलेगी पर हारेगा हमारा देश ही...जी हां कॉमनवेल्थ खेल खत्म हो गया पर अब जांच शुरू हो गई है कि किसने कितना पैसा खाया..और यही है असली खेल के पीछे का खेल जहां हमेशा भारत हारता रहा है...हर बार की तरह इस बार भी खूब हल्ला हो रहा है....घोटाले को लेकर हाय तौबा मची हुई है पर इतिहास गवाह है इस देश का कि हम न तो भ्रष्टाचार को रोकने में कामयाब रहे हैं और न भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने में...आज तक इस देश में जितने घोटाले हुए हैं उनमे से शायद ही किसी को सजा हुई है....पर हमे एक चीज में महारत हासिल है वो है जांच कमेटियां बनाने में....पहले घोटाला होता है देश के गरीबों का पैसा नेता और अधिकारी डकार जाते हैं और फिर बनती है जांच कमेटी... जिसका बार बार कार्यकाल बढ़ा दिया जाता है और 20 से 30 साल बीत जाते हैं न तो किसी को सजा होती और न ही कार्रवाई होती है....वोफोर्स कांड हो...ताबूत कांड हो...हवाला कांड हो या और न जाने कितने ही कांड इस देश में हो चुके हैं कभी इस देश में किसी नेता को सजा नहीं हुई..इस बार भी एक जांच कमेटी बना दी गई है......पता नहीं कितनी बार इसका कार्यकाल बढ़ेगा...सजा किसी होगी इसकी उम्मीद शायद ही देश के लोगों को हो...पर यहां एक बड़ा सवाल ये पैदा होता है कि हम सिर्फ कागजी जांच पर ही क्यों भरोसा रखते है ? क्यों नहीं कुछ ऐसा हो की भ्रष्टाचार हो ही न पाए ऐसा कानून बने.. क्यों न कुछ ऐसा हो अगर कोई पैसा खा रहा है तो उसे समय रहते ही पकड़ लिया जाए...आखिर क्यों हमारा देश की जांच एजेंसी इस बात का इंतजार करती है कि पहले घोटाला हो जाए और जब हल्ला होगा तो जांच कर लेंगे...वैसे जो भी व्यक्ति जमीन से जुड़ा है वो बहुत अच्छे से जानता है कि इस भ्रष्टाचार की जड़े क्या हैं...आज हमारे देश के छोटे से गांव से ये भ्रष्टाचार चालू होता है और संसद में बैठे सांसदों तक पहुंचता है...गांव में एक जाति प्रमाण पत्र बनवाने मैने खुद बचपन में दौ सौ रुपए दिए हैं...और सुनिए एक बार कॉलेज चुनाव के दौरान हमारे गुट का दुसरे गुट से झगड़ा हो गया हमने शायद 3 या 4 हजार रुपए दिए थाने में बैठे अधिकारी को और किसी पर मामला दर्ज नहीं हुआ....मैं कॉलेज की पढ़ाई करने गंजबासौदा से भोपाल अप -डाउन करने लगा....कभी मैने ट्रेन में टिकट नहीं लिया..हमेशा बिना टिकट जाता था..और मेरे साथ ऐसा करते थे करीब 40 से 50 लड़के....महीने में शायद एक या दो बार हमे टिकट चैक करने वाला मिल जाता था हम सब 20-20 रुपए मिलाते थे और करीब 800 से हजार रुपए देते थे टीसी को और फिर क्या पूरे महीने तक हमे लायसेंस मिल जाता था बिना टिकट यात्रा करने का...भोपाल में कभी मैने ड्राइविंग लाइसेंस नहीं बनवाया कभी ट्रैफिक पुलिस वाला मिल जाए तो बस 50 रुपए में हम बच जाते थे फिर चाहे बाइक में तीन बैठे हों या तीस....कुल मिलाकर 50 रुपए में मैं कानून खरीद लेता था और 50 रुपए लेने के बाद ये पुलिस वाला भी कई दिनों तक हमसे कुछ नहीं कहता था...खैर मैरे अनुभव और भी हैं पर सब बताना मुश्किल है....कहने का मतलब ये है कि भ्रष्टाचार देश के एक छोटे से गांव से पैर पसारना चालू करता है और फिर संसद में बैठे नेताओं तक पहुंचता है....और एक बात और जब एक नेता 25 लाख रुपए अपनी पार्टी को देकर विधायक का टिकट लाता है और तब वो पांच साल में पांच करोड़ कमाने की सोचता है..एक पुलिस का सिपाही बनने के लिए मेरे ही एक करीबी दोस्त ने साढ़े तीन लाख की रिश्वत दी है...आज अगर मैं उससे कहूं की रिश्वत क्यों लेते हो तो उसका एक ही जवाब होता है कि जो दिया वो वसूल तो करेंगे ही...... मीडिया में भी पेड न्यूज के नाम पर सिर्फ रिश्वत लेने का काम चल रहा है...हम आधे घंटे किसी नेता या मुख्यमंत्री की तारीफ दिखाते हैं बदले में कहने को तो विज्ञापन का पैसा मिलता है पर वो एक तरह की रिश्वत ही है अपने अंदर के पत्रकार को आधे घंटे तक मारके रखने की... कॉमनवेल्थ में हुए घोटाले में भले ही जांच कुछ कहे पर आज देश के कोने कोने में जो भ्रष्टाचार रुपी राक्षक फैला है जब तक हम उसे नहीं मारेगे तब तक कुछ नहीं होने वाला...खैर बचपन में मैने भी बहुत रिश्वत ली है पापा कहते थे परीक्षा में अच्छे नंबर लाओ तो चॉकलेट दिला देंगे......और सिर्फ एक चॉकलेट के लिए हम पढ़ाई करते थे......तो सबसे पहले मेरे और आपके अंदर बैठे रिश्वतखोर को मारो फिर पूछना कॉमनवेल्थ में घोटाला किसने किया ?
रोमल भावसार
देश के अंदर बैठे रावण कब जलेंगे ?
रोमल भावसार
ये कैसे डॉक्टर?
हिन्दी हुई बेगानी
Filhaal bandhe hain hath.
Aaj Raipur chhore 1 mahina ho gaya, bahut si yaadein hain... bahut si baatein hain, jinhe shabd dene hain. Lekin kambakhat font support nahi kar raha hai, lihaza likhne se hath bandhe hai. Koshish karunga jald kuch linkhu. Aap sabhi bahut yaad aate hain.
Hamesha aapka,
NISHANT BISEN
Vacuum मतलब 'बाप की ट्रेन'
मीडिया है कमाल
उन्हें रहता है अक्सर खबरों का ही मलाल
सुबह-शाम, उठते-बैठते हर वक्त
उन्हें आते हैं खबरों के ही सपने
जितनी भी खबरें दो उनके आगे परस
एक बार में जाते हैं वो गटक
थोड़ी देर में खबरें हो जाती है...हजम
और फिर से करते हैं...खबरों का ही महाजाप
पत्रकार करते हैं खबरों का पोस्टमार्टम
ऐंकर करते हैं पोस्टमर्टम रिपोर्ट का बेसब्री से इंतजार’’
और हर मीडिया हाउस की है ऐसी ही सरकार''
नोट: इस कविता के सभी पात्र काल्पनिक हैं...इसका किसी व्यक्ति विशेष से कोई सरोकार नहीं...ये मात्र भावों की अभिव्यक्ति है..अतः इसका गलत अर्थ न लगाएं
क्या नाम दूं?
मैं क्या नाम दूं...?
कभी धूप कहूं कभी छांव कहूं
कभी सैलाबों का नाम मैं दूं
कभी शोर कहूं...कभी मौन कहूं
कभी खामोशी का जाम कहूं....
कभी गम की शाम कहूं
तो कभी इठलाती मुस्कान कहूं
कभी खुशियों का पैगाम कहूं
या जीवन का संग्राम कहूं!
मेरी आवाज़ 'इंक़लाब'
बग़ावत का झंडा बुलंद कर, आवाज़ अपनी उठा
कर अपना सर ऊंचा, एक चीख़ ऐसी लगा
हिल जाएं हुकूमत की जड़ें, आंधियां भी चल पड़ें
तू भूखा रह और भूखा ही आगे बढ़
कुछ खाया तूने तो तुझे नींद आ जाएगी
और आंखें बंद की तो आवाज़ भी खो जाएगी
जागना है तुझको, औरों को भी जगाना है
शायद इस बार इंक़लाब तुझे ही लाना है
ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद के नारे बहुत लगा लिए तूने
अब तुझे कुछ कर दिखाना होगा
ना उम्मीदी के सूरज को डुबाकर
तुझे चलना है उस पश्चिम की तरफ
जहां डूबी हुई उम्मीदें हैं...........
तुझे भी डूबना होगा इन्हीं उम्मीदों के लिए
एक नए कल के लिए...
सूरज फिर से निकलेगा, पंछी फिर से गाएंगे
एक नया घर, गांव, प्रदेश, एक नया देश हम बसाएंगे
वो देश जहां खुशहाली हो, हरियाली हो
वो देश जहां हर कंधे पर जिम्मेदारी हो...
आओ मिलकर फिर से एक सवेरा लाएं...
दर्द, भूख, बीमारी, गरीबी हर अंधकार को दूर भगाएं...
आओ मिलकर हम अपनी आवाज़ उठाएं...
शिक्षक दिवस से टीचर्स डे तक...डे ने किया डंडा !
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