"अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र की नींव है, अगर आप बदलाव चाहते हैं तो आपको सही रास्ते पर चलना होगा"- आंग सांग सू ची
क़रीब दस बरस गुज़र गए, उन्होंने अपने दोनों बेटों को नहीं देखा है। वे दादी बन चुकी हैं, लेकिन अब तक अपने पोतों को गले से नहीं लगा सकी हैं। पिछले 21 में से 15 बरस उन्होंने अपने घर की चहारदीवारी में नज़रबंदी में काटे हैं। इस दौरान सारी दुनिया से वो कटी रहीं। न किसी से बात करने की इजाज़त, न फ़ोन का कनेक्शन और न ही दुनिया की ख़बर रखने के लिए इंटरनेट। साथ के नाम पर बस दो महिला सहयोगी और कभी-कभार मिलने वाले डॉक्टर और वक़ील।
ये कहानी है ‘द लेडी’ की। जी हां, उस मुल्क़ में द लेडी तो सिर्फ़ आंग सांग सू ची ही हैं। दो दशकों से भी ज़्यादा वक़्त हो गया, वो म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के लिए शांतिपूर्ण तरीके से अपनी आवाज़ रख रही हैं। उस सैन्य शासन के ख़िलाफ़, जो क़रीब 50 बरसों से म्यांमार में जमा हुआ है। अब भी बर्मा की अवाम की उम्मीद हैं, आंग सांग सू ची। 65 वर्षीय, बेहद शांत, मीठा बोलने वाली आंग सांग सू ची को 1991 में शांति के लिए नोबल पुरस्कार से भी नवाज़ा जा चुका है। म्यामांर के नेशनल हीरो रहे आंग सांग की ये बेटी पूरी जीवटता और जज़्बे के साथ सैन्य शासन के ख़िलाफ़ लोहा ले रही है। शनिवार को उनकी नज़रबंदी ख़त्म हो गई, जैसे ही वे अपने घर से बाहर निकलीं, उनके समर्थकों के बीच ख़ुशी की लहर दौड़ गई। सू ची की आंखों में अब भी वही चमक थी, अब भी अपने देश में लोकतंत्र की स्थापना का ख़्वाब उतना ही मुखर था। बकौल अमरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, वे उनके नायकों में से एक हैं। दुनिया भर में सू ची की रिहाई का स्वागत हो रहा है।
सू ची ने तानाशाही के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण और अनूठे तरीके से लड़ाई लड़ी है। एक सादगी भरा पारिवारिक जीवन जीने वाली महिला का पहले नेता बनना और फिर दुनिया के सबसे मशहूर क़ैदी में तब्दील हो जाना इसी का हिस्सा रहा है। उनकी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (NLD) ने 1990 के आमचुनावों में भारी बहुमत हासिल किया था, लेकिन वहां के शासक ने इन नतीजों को नहीं माना। सैन्य शासन जारी रहा, सू ची ने लंबा वक़्त नज़रबंदी में गुज़ारा। पढ़कर और पियानो बजाकर। 2003 में उनका बड़ा ऑपरेशन भी हुआ, जिसके बाद उन्हें घर में क़ैद कर दिया गया।
1990 के बाद बर्मा में 7 नवंबर को फिर चुनाव हुए। सू ची की पार्टी ने चुनाव की नियमावली पर सवाल उठाते हुए चुनाव में हिस्सा नहीं लिया। पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने नेशनल डेमोक्रेटिक फोर्स का गठन कर चुनाव में उतरने का फ़ैसला लिया। उनका मानना रहा कि बहिष्कार से लोकतंत्र की राह आसान नहीं रह जाएगी। लेकिन नतीजा वही रहा, सेना के समर्थन वाले नेशनल सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट एसोसिएशन ने जीत हासिल कर ली है। संयुक्त राष्ट्र संघ और पश्चिमी देशों ने चुनाव की पारदर्शिता पर सवाल उठाए हैं।
बात सिर्फ़ इतनी है कि हम ज़रा ज़रा से मसलों पर टूटने लगते हैं। इतना सब सहने के बाद भी वे अपने समर्थकों से कहती हैं कि 'उन्हें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए, ना ही अपना दिल छोटा करना चाहिए'। वे कहती हैं, ‘सुनने और कहने का एक तय वक़्त होता है’। वे अब भी कहती हैं कि ‘हिम्मत हारने की कोई वजह नहीं है’। वे 'शांतिपूर्ण क्रांति' चाहती हैं, वे जानती हैं कि सरकार उन्हें किसी भी वक़्त फिर नज़रबंद कर सकती है और वे इसके लिए तैयार भी हैं। उन्हें भरोसा है कि म्यांमार में लोकतंत्र ज़रूर आएगा, भले ही इसमें वक़्त लगे। लोकतंत्र की बहाली लिए लड़ रही ‘द लेडी’ के जज़्बे को सलाम।।
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