बेटा साइकिल चलाना सीख गया





मेरा बेटा 5 साल का है.. सभी बच्चों की तरह शरारती है चंचल है और ढेर सारे भारी भरकम सवाल भी करता है.. खैर यहां मुद्दा ज़रा जुदा है.. पिछले हफ्ते की बात है वो साइकिल चलाना सीख गया.. इसमें कोई अजूबे वाली बात नहीं है.. हर बच्चा सीखता है.. हम भी सीखे थे आप भी सीखे थे.. ताज्जूब इस बात का है कि वो बिना किसी की सहायता के साइकिल चलाना सीख गया.. मैनें भी सीखी थी लेकिन पिताजी पीछ-पीछे दौड़ा करते थे एक हाथ से साइकिल का कैरियर पकड़ कर और मुझे लगता था कि मैं तीसमार ख़ां साइकिल चला रहा हूं.. बीच में जैसे ही पिताजी हाथ छोड़ते तो थोड़ी दूर लड़खड़ाते हुए जाने के बाद अक्सर धम्म से गिर जाया करता था.. ये बीते हुए कल का गहरा फलसफा था कि बाप के सहारे के बिना एक कदम भी चल पाना कितना दुभर था और शायद यही छोटे-छोटे कारण है कि आज

भी ज़िंदगी के हर पड़ाव पर पिताजी के साथ होने का एहसास, सुरक्षित होने का सुकून देता है .. लेकिन आज कमबख्त technology ने हर रिश्तों की मिठास को फीका कर दिया है.. emotions भी प्लास्टिक के बना दिए गए हैं.. मैं यहां ये नहीं कह रहा कि आज बचपन में बच्चों को बाप के सहारे की ज़रूरत नहीं... ज़रूरत है लेकिन नए परिवेश में, नए आवरण में.. अब साइकिल चलाने की बात ही ले लिजिए.. तकनीक ने साइकिल को ऐसा modify किया कि बाप को साइकिल सीखते बच्चे के पीछे दौड़ना नहीं पड़ता... बच्चे ऐसे ही सीख जाते हैं जैसे मेरा बेटा सीख गया...मैं चाहकर भी उसके पीछे नहीं दौड़ सका.. वैसे बेटे के इतना जल्दी साइकिल सीखने की मुझे बेहद खुशी है लेकिन जिम्मेदारी और सुरक्षा का भाव लिए अपने बच्चे के पीछे उसे सहारा देने के लिए नहीं दौड़ पाने का मलाल भी है और डर भी कि कहीं इसी तरह तकनीक के जादूगरों के नए-नए इजाद जिंदगी के हर पड़ाव में बाप होने के एहसास को धुमिल ना करते जाएं और रिश्तों की अहमियत कम होती जाए.. शायद में कुछ ज्यादा ही possessive हो रहा हूं.. लेकिन हालात भी तो कुछ ऐसे ही बनते जा रहे हैं.. पहले हम खाली समय में पिताजी की गोद में बैठकर उनकी मूंछ के बालों से खेला करते थे और अपने ऊटपटांग सवालों पर भी उनसे सही जवाब की इच्छा रखते थे और यक़ीन मानिये जवाब मिलता भी था.. आज बच्चे cartoon network पर ना जाने कौन-कौन से cartoon character को अपना Maximum समय समर्पित कर देते हैं... एक अलग दुनिया बन गई है..और ये दायरा, ये फासला समय के साथ बढ़ता जाता है.. पिताजी पापा से डैड बन जाते हैं और फिर generation gap का उदाहरण भी...शायद जैसा मैनें ऊपर ज़िक्र भी किया हमें अपने आप को नए परिवेश में ढालना होगा, नए आवरण को ओढ़ना होगा.. उच्च तकनीक के साथ तेजी से भागते समय के साथ हमें भी दौड़ लगानी होगी.. ताकी 'हम' बच्चों की उंगली पकड़ कर चल सकें...

1 टिप्पणियाँ:

निशांत बिसेन ने कहा…

वाह कितनी ख़ुशी की बात है। आपने बहुत शानदार अंदाज़ में अपने भावों को उकेरा हैं। दूसरी तमाम बातों और कामों से फ़ुर्सत मिले, तब कहीं ना आप बच्चे की साइकल के पीछे भागें। बच्चे भी पापा की मसरूफ़ियत को समझते हैं, लिहाज बिना किसी सहारे के आगे बढ़ रहे हैं। आपकी ख़ुशी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

शुभकामनाएं।।

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