अबके जो मिले, तो क्या ख़ूब मिले...

कैसी रही आपकी दीपावली? भई मैं तो आज ही छुटि्टयां मनाकर घर से लौटा हूं। बेहद शानदार रहा बीता हफ़्ता। न कामकाज की फ़िक्र रही, न ही ऑफिस की चिंता सताई। उत्सव के रंग ऐसे बिखरे कि साहब क्या कहने। एकबारगी तो ज़िंदगी पटरी पर लौटती दिखाई दी, लेकिन रात भर के सफ़र के बाद आज अलसुबह ही ये ख़ुशफ़हमी दूर हो ली। आज फिर दफ़्तर जाना है।
ख़ैर, ब्लॉग पर लंबे समय के बाद मौजूदगी दर्ज करा रहा हूं। जहां तक याद पड़ता है, पिछले लिखे और इस लिखे के दरमियां तक़रीबन 4 महीनों का फ़ासला है। लिखना छूट सा गया है। आज न जाने क्या सूझी, सफ़र की थकान को नज़रअंदाज़ करते हुए मैं लिख रहा हू। यक़ीन नहीं हो रहा है।
                                      पता है, इस बार की छुट्टियों में सबसे ख़ास बात क्या रही... मैं स्कूल, कॉलेज, मोहल्लों और शहर के उन तमाम दोस्तों से मिला, जो लंबे समय से पाए ही नहीं जा रहे थे। अभी कुछ ही बरस तो गुज़रे हैं, हम इकट्ठे साइकल पर सवार होकर शहर भर घूमा करते थे। ताज़ा ख़बर ये है कि यारों के दिन फिर गए हैं। ज़्यादातर दोस्त प्रशासनिक सेवाओं में चले गए हैं। कुछेक डॉक्टर हो गए हैं, कुछ वक़ीलों की, तो बहुतेरे इंजीनियरों की जमात में शामिल हो गए हैं। कुछ स्थानीय राजनीति में पैठ जमाने की जद्दोजहद कर रहे हैं, तो कुछ ने साबित कर दिया है कि वे अपने पुश्तैनी कारोबार को बेहतर तरीके से आगे बढ़ा सकते हैं। पत्रकार मैं अकेला हूं। सबसे मिलना दिल को सुकून दे गया। एक अजीब सी बेचैनी, एक दिल को दुखाने वाला खालीपन, जो हर वक़्त महसूस होता रहता है... वो इस दौरान जाता रहा।
                                       बहुत लंबा वक्त नहीं बीता है, मुझे घर छोड़े या नौकरी थामे। शायद यही वजह है कि दोस्तों, परिवार वालों, रिश्तेदारों या किसी के भी छूटने पर दर्द बयां न करने का सलीका मुझमें अब तक नहीं आ सका है। हम तो कहते हैं साहब कि न ही आए तो बेहतर है। इस प्रवास के दौरान एक बात जो मैंने शिद्दत से महसूस की.. वो ये रही कि मैं घर लौट जाना चाहता हूं। इस हसरत को पूरा करने की क़ीमत क्या हो सकती है, इसका अंदाज़ा मुझे है।

तो बात यारों की हो रही थी। यार अब भी चाहते हैं कि मैं अपने शहर लौटकर राजनीति में किस्मत आज़माऊं। अब यारों का कहना है तो सही ही होगा। यार भी कभी ग़लत हुए हैं भला? वैसे भी कैलकुलेशन करके ज़िंदगी की राहों पर तो कम से कम नहीं चला जा सकता। अब तक का रास्ता वैसे भी बिना हिसाब-किताब के कटा है। मेरा मानना है कि अगर मेहनत की जाए तो मैं अपने मौजूदा पेशे यानी पत्रकारिता में काफ़ी क़ामयाब हो सकता हूं (बेहद निजी राय है)। पत्रकारिता से सियासत में जाना, आप सोचेंगे बड़ा महत्वाकांक्षी आदमी है। चलिए मान लिया मैंने कि मैं महत्वाकांक्षी हूं, इसमें बुराई भी क्या है? वैसे ही सियासत मवालियों और नाक़ाबिलों के हाथों में है। हम जैसों के पास कम से कम महफ़ूज़ तो रहेगी। मैं ये नहीं समझ पाता कि क्यों मेरे पिता को इससे इत्तेफ़ाक रहता है कि मैं सियासत में हाथ आज़माऊं? क्यों मां को इस शब्द से ही नफ़रत है? आख़िर क्यों मेरे पड़ोसी सबसे मिलने के मेरे बेतकल्लुफ़ मिज़ाज को लेकर अपनी रातों का सुख-चैन लुटाते हैं? क्या इतना बुरा है राजनीति में जाने का सोचना भी?
                  ये तो एक भाव था, आया सो लिख दिया। फिलहाल तो पैसों और नौकरी दोनों की दरकार है। फ़ैसला सोच-समझ कर लेना है।

इस दफ़ा जब घर पर था, एक जनाब मिले। उनकी पीड़ा ये थी कि बालाघाट (मेरा गृह ज़िला, मध्य प्रदेश की राजधानी से तक़रीबन 500 सौ किमी की दूरी पर बसा बेहद ख़ूबसूरत और उपेक्षित शहर)को सही तरीक़े से पेश नहीं किया जाता। भई इस दिशा में आप कुछ करते क्यों नहीं, राजधानी में पत्रकार हैं? मुझसे अनायास ही पूछा गया ये सवाल उस वक़्त तो मुझे निरुत्तरित कर गया... लेकिन पड़ताल में जुटा हूं। बालाघाट को लेकर कुछ ख़ास तथ्य और रोचक बातें लेकर जल्द आपके सामने आऊंगा। यक़ीन मानिए, सतपुड़ा की गोद में बसे इस बेहद ख़ूबसूरत शहर को जानबूझकर उपेक्षित रखा जा रहा है।

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मेरे गांव में लक्ष्मी पूजा के तीसरे दिन गाएं खेलती हैं। आप सोचेंगे ये क्या, गाएं कैसे खेलती होंगी? दरअसल, इस ख़ास दिन पूरे गांव के मवेशी एक जगह इकट्ठे किए जाते हैं। यहां चरवाहा और उस समाज विशेष के लोग गौ माता की पूजा करते हैं। सारे मवेशियों की जमकर ख़ातिरदारी होती है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश के गांवों में होने वाले इस उत्सव की धूम का अंदाज़ा आपको हो रहा होगा। वैसे हम जैसे पढ़े-लिखे, समझदार लोगों ने इन उत्सवों से दूरी बना ली है।
                     एक और बात, मुझे भोपाल आए तीन महीने ही हुए हैं। इससे पहले वाला ठौर यानी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर अब भी बहुत याद आता है। उस धूल-माटी वाले शहर से दिल लग सा गया था, वहां के साथियों को छोड़ने का सोग़ अब तक है। ख़ैर, ज़िंदगी है.. फिर मिलेंगे। लेख पढ़ने में आपको बेढंगा लग सकता है, क्या करूं... बेतरतीबी छिपाए नहीं छिपती।।

- निशान्त बिसेन

2 टिप्पणियाँ:

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

@ख़ैर, ज़िंदगी है.. फिर मिलेंगे। लेख पढ़ने में आपको बेढंगा लग सकता है, क्या करूं... बेतरतीबी छिपाए नहीं छिपती।

ना ना, कुछ भी बेढंगा नहीं है जी। यही तो ब्लॉगरी है। जो मन में आये दे मारो ईमानदारी से। बनावटी बातें तो साहित्य रचने में की जाती है। :)

ज्योति सिंह ने कहा…

आपकी बातें पढ़कर निशांत आपका चेहरा आंखों के सामने आगया...लिखते आप अच्छा हैं उस पर क्या कमेंट करूं...इसी तरह लिखते रहना दोस्तो के जहन में आपकी याद ताजा रहेगी....बेढंगां कुछ नहीं होता..ये सोच की बात है....

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