किसानों के दर्द से कराही राजधानी







               (फोटो साभार: दिलीप चौकसे, चंद्रेश माथुर)
                   

रोज़ की तरह ही रविवार की रात भी सर्द झोंकों और ख़ामोशी के आग़ोश में मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल सोयी हुई थी। किसी भी आहट से बेख़बर। इधर रफ़्ता-रफ़्ता रात मुकम्मल होती जा रही थी और उधर....? उधर कोई था, जो सूरज के निकलने के साथ ही ख़ुद की ताक़त का एहसास कराने की तैयारी में जुटा था। तैयारी भी ऐसी कि बस, तारीख़ उसे हमेशा-हमेशा के लिए याद रखे।
    मध्य प्रदेश का किसान अपनी बदहाली और सरकार की अनदेखी से इस क़दर आजिज़ आ चुका है, कि उसे सरकार तक अपनी आवाज़ पहुंचाने का यही एकमात्र रास्ता नज़र आया। सुनियोजित रणनीति के तहत, रात के साये में प्रदेश के किसानों ने राजधानी में ऐसी सेंध लगाई कि अगले दिन सरकार और प्रशासन पानी मांगते दिखे। प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह किसान के बेटे हैं, लिहाज़ा वे ख़ुद के किसानों के ज़्यादा क़रीब होने का दावा करते हैं। ये तो नहीं पता कि वे किसानों के कितने क़रीब हैं? लेकिन हां, सूबे का किसान जब उनसे भी किसी तरह की राहत की उम्मीद खो बैठा, तो उसने ये क़दम उठा ही लिया। सात महीने की ज़बरदस्त प्लानिंग, एक-एक किसान को भरोसे में लेने के बाद भारतीय किसान संघ की अगुवाई में हज़ारों किसानों ने सरकार की ईंट से ईंट बजा दी है। पहले तो किसानों ने प्रशासन से इस बात की इजाज़त मांगी कि लगभग दस हज़ार किसानों और 150 ट्रैक्टर-ट्रॉलियों के साथ वे राजधानी में आएंगे और सरकार तक अपनी आवाज़ पहुंचाएंगे। किसान इस तरह अपनी बातों को पहले भी शिवराज सरकार तक पहुंचाते रहे हैं। हर बार नाउम्मीदी मिलने के बाद इस बार किसानों का इरादा कुछ और करने का था।
    किसानों ने जानबूझकर प्रशासन को मुग़ालते में रखा। किसानों की जानिब से महज़ छोटे-मोटे प्रदर्शन की उम्मीद लगाए बैठे प्रशासन और सरकार के होश उस वक़्त उड़ गए, जब सोमवार की सुबह राजधानी भोपाल किसानों की मुट्ठी में थी। रात के अंधेरे में किसानों ने हज़ारों की तादाद में ट्रैक्टर और ट्रॉलियां, राजधानी में घुसा दी थीं। राजधानी के सभी मुख्य रास्तों पर उन्होंने इन ट्रैक्टर और ट्रॉलियों को अड़ा दिया। राजधानी का बाहरी संपर्क बाधित करने के लिए बाहरी हिस्से में भी ऐसा ही किया। फिर क्या था, किसान हमला कर चुके थे। जानकार कहते हैं कि भोपाल में ऐसा ट्रैफिक जाम पहले कभी नहीं लगा। शहर के कई मुख्य मार्ग अब भी बंद हैं।
    दो राय नहीं, सरकार की नाक के नीचे, उसी के क़िले में सेंध लगाकर अन्नदाता ने अपनी ताक़त का एहसास करा दिया है। सरकार और प्रशासन भले ही कह रहे हैं कि किसानों ने उन्हें धोखे में रखकर ये क़दम उठाया है, लेकिन सवाल ये है कि आख़िर किसान क्यों मजबूर हुआ?
    मध्य प्रदेश में भाजपा को सत्तासीन हुए सात बरस हो गए हैं। शिवराज सिंह पांच सालों से राज्य के मुखिया हैं। दिग्विजय सरकार के सत्ताच्युत होने के पीछे किसानों की बदहाली एक बड़ा कारण थी। किसानों को बिजली नहीं मिल रही थी, फसलों की सिंचाई के लिए पानी नहीं मिल रहा था, और भी बहुत सी समस्याएं। भाजपा सत्ता में आई तो उम्मीद थी कि हालात बदलेंगे, लेकिन नहीं। कुछ नहीं बदला। गांव अब भी अपनी दुर्दशा पर रो रहे हैं। न वहां रोशनी है, न पानी। किसानों ने इस बार 183 मुद्दों को लेकर सरकार को घेरा है। बिजली दो, पानी दो के मु्द्दे को लेकर सरकार की अनदेखी ने ही उन्हें इस हल्लाबोल के लिए उकसाया। ऐसा भी नहीं कि किसान महज एक-दो दिनों के आंदोलन के इरादे से आए हैं। उनका कहना है कि जब तक उनकी बातें नहीं मान ली जातीं, वे घर नहीं जाने वाले। इसके लिए बाक़ायदा उन्होंने अपने साथ राशन-पानी का इंतज़ाम भी किया हुआ है। किसान कहते हैं कि अगर पुलिस ने उन पर लाठी चार्ज किया तो वे भी जवाब देने के लिए मजबूर होंगे।
   इस बात में भी शक़ नहीं कि किसानों के इस क़दम से राजधानी के लोगों को ज़बरदस्त मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। पहले ही जाम ने राजधानीवासियों की हालत पतली कर दी है, अब बाहरी रास्तों पर लगे जाम के कारण सप्लाई पर असर पड़ने की आशंका है। अगर ऐसा होता है तो लोगों को सब्ज़ी, दूध और दूसरी ज़रूरतों के लिए क़िल्लत का सामना करना पड़ सकता है। लोगों को हो रही असुविधा के लिए इस पूरे आंदोलन के सूत्रधार और किसान संघ के अध्यक्ष शिव कुमार शर्मा ने माफ़ी मांगी है, लेकिन साथ ही ये भी कहा है कि देश में लाखों किसान ख़ुदकुशी कर रहे हैं, लोगों को उनका दर्द समझना चाहिए। नकली बीज और खाद ने किसानों की कमर तोड़ कर रख दी है, सरकार अब सुध नहीं लेगी तो कब लेगी?
  इस पूरे आंदोलन में एक बात जो बेहद रोचक है, वो ये है कि भारतीय किसान संघ भाजपा और संघ से ही जुड़ा संगठन है। यानी अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलकर संगठन ने सरकार की बोलती बंद कर दी है।
  किसान अब भी राजधानी में जमे हुए हैं। यहां कड़ाके की सर्द पड़ रही है। पारा पांच डिग्री के क़रीब है, लेकिन ये हाड़ कंपाने वाली ठंड भी किसानों के इरादों को कमज़ोर नहीं कर पा रही है। देखते हैं, खलिहानों से निकलकर राजधानी पर धावा बोलने वाले किसानों की मांगों को सरकार कितनी संजीदगी से लेती है??

इस जनादेश के मायने...

कुछ लिखने को जी कर रहा था, विषय नहीं मिल रहा था। अचानक एक ख़बर पर नज़र पड़ी। ख़याल आया कि इस पर लिखा जा सकता है। ख़बर यूं कि उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िले के एक गांव में एक भिखारी ने सरपंच का चुनाव जीत लिया है। ऐसा नहीं कि 60 बरस के नारायण नट उम्मीदवारों के अभाव या किसी त्रुटि की वजह से ग्राम प्रधान बने हों, बल्कि बाक़ायदा चुनावी समर में उतरकर, ग्यारह उम्मीदवारों को पटखनी देकर उन्होंने सरपंची हासिल की है।
                 सरसरे तौर पर देखा जाए तो कोई बहुत हैरत की बात नहीं है। हर नागरिक को चुनाव लड़ने का हक़ है। नारायण नट जीत गए, उन्हें बधाई। लेकिन सरसरे तौर पर ना देखा जाए, गंभीरता से सोचा जाए तो माज़रा इतना भी सरल नहीं है। नारायण के पुरखे भी भीख मांगते थे, नारायण की पत्नी और उसके बच्चे भी भीख मांगते है, नारायण भी भीख मांगते मांगते ही ज़िंदगी का सफ़र पूरा कर रहा है। यकायक क्या हुआ, जो लोगों को नारायण में नेतृत्व क्षमता नज़र आ गई। देश भर में विकास की बात हो रही है। ऐसा क्या लगा लोगों को, जो नारायण की हाथ में कमान सौंप दी गई?
                                 लोग पुराने नेतृत्व से आजिज़ आ चुके हैं। सत्ता का दुरुपयोग, पद प्रदर्शन, शक्ति प्रदर्शन, भ्रष्टाचार, दबंगई, रसूख साबित करना, अपराध, नैतिक पतन, ग़ैर ज़िमेमदाराना रवैया, राजनीतिक शुचिता का उल्लंघन सब कुछ सियासत में इस तरह रच बस गया है कि अब ना लोगों को राजनीति पर भरोसा रह गया है और ना ही राजनेताओं पर। पुराने राजनीतिज्ञ उस वट वृक्ष की तरह हैं, जो अपनी छांह में किसी को पनपने नहीं देना चाहते। दिनों दिन गंदे होते राजनीतिक परिवेश में नए लोग ख़ुद को असहज पाते हैं। अतिशयोक्ति नहीं कि बतौर करियर, राजनीति उनकी फेहरिस्त के आख़िर में भी जगह नहीं पाता होगा। जो इक्का दुक्का सियासत में आना चाहते होंगे, उन्हें ज़मीन नहीं मिल पा रही है। कुल मिलाकर नया नेतृत्व पैदा ही नहीं हो रहा है। लिहाज़ा नारायण नट जैसे लोगों को जिताकर दुनिया का सबसे वृहद् लोकतंत्र अपनी खीझ मिटाने की कोशिश कर रहा है।
     मुझे कोई बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं है कि नारायण जैसे जनप्रतिनिधि जनअपेक्षाओं पर खरे उतर पाएंगे। क्या होगी अगली स्टेज?? मतदाता तब तो उसे भी जिताने का साहस खो चुका होगा। कितना भयावह हो सकता है ये भटकाव, कल्पना कीजिए।
     इन दिनों देश में दो बातों का ख़ूब शोर हैं। पहली, विकास। दूसरी, भ्रष्टाचार। विकास की इसलिए, क्योंकि बिहार जैसे राज्य में ना केवल विकास मुद्दा बना, बल्कि सरकार की दोबारा सत्ता में वापसी हुई। भ्रष्टाचार का नाम इसलिए सबकी ज़ुबान पर है, क्योंकि आए दिन क्या कुछ हो रहा है, वो आप देख सुन रहे ही हैं। ऐसा नहीं कि लोगों को ये बातें सोचने पर मजबूर नहीं करतीं। लोगों में आक्रोश है, तीखी प्रतिक्रियाएं करते हैं वो। जब बहुत ग़ुस्सा आता है तो राजनीतिक पार्टियों को कोसते भी हैं। जब और ग़ुस्सा आता है तो कह देते हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता जब उनका ग़ुस्सा बेक़ाबू हो जाता है तो इतना तक कह देते हैं कि सब साले चोर हैं। बात ख़त्म।
    मैं सोचता हूं जब बात शुरू होने को आती है तो ही क्यों पूर्णविराम लगता है। हम इतने बड़े लोकतंत्र की अगुवाई कर रहे हैं। उम्र के शुरुआती सालों में ही जनता का, जनता के लिए, जनता को........ जैसे सबक हमारे कानों में पड़ गए थे। देश तरक्की कर रहा है, लेकिन इसकी बुनियाद यानी लोकतंत्र से लोग खिलवाड़ करते जा रहे हैं, करते जा रहे हैं, करते ही जा रहे हैं... और हम चुप हैं। इंतज़ार कर रहे हैं कि पुराने लोग चले जाएंगे, जो नए आएंगे वो भले होंगे, ईमानदार होंगे। कितने बुज़दिल हैं हम?? क्यों भ्रष्टाचार और तमाम दिल को झकझोर देने वाली बातों को सुनकर भी हमारा लहू नहीं फड़कता? सियासत और डोर थामे, इसे खेल समझ बैठे चंद लोग जो चाहते हैं, वो कर लेते हैं।
     यक़ीनन जनता बदलाव चाहती है, लेकिन उसके पास विकल्प नहीं है। लिहाज़ा कमान नारायण नट को दी जा रही है। लेकिन ये स्थाई समाधान नहीं, अच्छे लोगों को आगे आना होगा। जनता को अच्छे लोगों को पहचानना होगा, नाक़ाबिलों को नकारना होगा। ऐसा नहीं है कि देश कोई बहुत मुश्किल वक़्त से गुज़र रहा है, जहां संभावनाओं का अंत निकट है। ऐसी कई खरोचों को लोकतंत्र बिना किसी मुश्किल के आसानी से सह गया है। राजनीति में आने के लिए अच्छे लोगों को प्रोत्साहित करें।।

बेटा साइकिल चलाना सीख गया





मेरा बेटा 5 साल का है.. सभी बच्चों की तरह शरारती है चंचल है और ढेर सारे भारी भरकम सवाल भी करता है.. खैर यहां मुद्दा ज़रा जुदा है.. पिछले हफ्ते की बात है वो साइकिल चलाना सीख गया.. इसमें कोई अजूबे वाली बात नहीं है.. हर बच्चा सीखता है.. हम भी सीखे थे आप भी सीखे थे.. ताज्जूब इस बात का है कि वो बिना किसी की सहायता के साइकिल चलाना सीख गया.. मैनें भी सीखी थी लेकिन पिताजी पीछ-पीछे दौड़ा करते थे एक हाथ से साइकिल का कैरियर पकड़ कर और मुझे लगता था कि मैं तीसमार ख़ां साइकिल चला रहा हूं.. बीच में जैसे ही पिताजी हाथ छोड़ते तो थोड़ी दूर लड़खड़ाते हुए जाने के बाद अक्सर धम्म से गिर जाया करता था.. ये बीते हुए कल का गहरा फलसफा था कि बाप के सहारे के बिना एक कदम भी चल पाना कितना दुभर था और शायद यही छोटे-छोटे कारण है कि आज

भी ज़िंदगी के हर पड़ाव पर पिताजी के साथ होने का एहसास, सुरक्षित होने का सुकून देता है .. लेकिन आज कमबख्त technology ने हर रिश्तों की मिठास को फीका कर दिया है.. emotions भी प्लास्टिक के बना दिए गए हैं.. मैं यहां ये नहीं कह रहा कि आज बचपन में बच्चों को बाप के सहारे की ज़रूरत नहीं... ज़रूरत है लेकिन नए परिवेश में, नए आवरण में.. अब साइकिल चलाने की बात ही ले लिजिए.. तकनीक ने साइकिल को ऐसा modify किया कि बाप को साइकिल सीखते बच्चे के पीछे दौड़ना नहीं पड़ता... बच्चे ऐसे ही सीख जाते हैं जैसे मेरा बेटा सीख गया...मैं चाहकर भी उसके पीछे नहीं दौड़ सका.. वैसे बेटे के इतना जल्दी साइकिल सीखने की मुझे बेहद खुशी है लेकिन जिम्मेदारी और सुरक्षा का भाव लिए अपने बच्चे के पीछे उसे सहारा देने के लिए नहीं दौड़ पाने का मलाल भी है और डर भी कि कहीं इसी तरह तकनीक के जादूगरों के नए-नए इजाद जिंदगी के हर पड़ाव में बाप होने के एहसास को धुमिल ना करते जाएं और रिश्तों की अहमियत कम होती जाए.. शायद में कुछ ज्यादा ही possessive हो रहा हूं.. लेकिन हालात भी तो कुछ ऐसे ही बनते जा रहे हैं.. पहले हम खाली समय में पिताजी की गोद में बैठकर उनकी मूंछ के बालों से खेला करते थे और अपने ऊटपटांग सवालों पर भी उनसे सही जवाब की इच्छा रखते थे और यक़ीन मानिये जवाब मिलता भी था.. आज बच्चे cartoon network पर ना जाने कौन-कौन से cartoon character को अपना Maximum समय समर्पित कर देते हैं... एक अलग दुनिया बन गई है..और ये दायरा, ये फासला समय के साथ बढ़ता जाता है.. पिताजी पापा से डैड बन जाते हैं और फिर generation gap का उदाहरण भी...शायद जैसा मैनें ऊपर ज़िक्र भी किया हमें अपने आप को नए परिवेश में ढालना होगा, नए आवरण को ओढ़ना होगा.. उच्च तकनीक के साथ तेजी से भागते समय के साथ हमें भी दौड़ लगानी होगी.. ताकी 'हम' बच्चों की उंगली पकड़ कर चल सकें...

मतदाता सम्मान हो तो बात बने


झीलों के शहर भोपाल का एक बेहद ख़ुशनुमा दिन, अमूमन इतनी भीड़ से वास्ता न रखने वाली सड़कों पर ज़बरदस्त चहलक़दमी, झंडों-बैनरों-पोस्टरों-कटआउट से अटे रास्ते, राज्य के दूरदराज से पहुंच रहे कार्यकर्ता और अपने नेता के सम्मान को लेकर उनका उत्साह। ये नज़ारा रहा, सोमवार का। मध्य प्रदेश में ग़ैर कांग्रेसी के तौर पर पांच साल पूरे करने वाले पहले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के अभिषेक का दिन। कहने को तो ये कार्यकर्ता गौरव दिवस रहा, जहां कैडर पर पुष्प वर्षा भी हुई, लेकिन असल हीरो तो शिवराज ही रहे।
        मध्य प्रदेश में भाजपा की सत्ता के सात बरस हो गए हैं। शुरुआती दो सालों तक चली उथल पुथल के बाद शिवराज सिंह के हाथों में नेतृत्व की बागडोर सौंपते वक़्त पार्टी के आला नेताओं को भी शायद ही यक़ीन रहा हो कि वे इतने खरे साबित होंगे। राजधानी के जंबूरी मैंदान पर दो लाख से ज़्यादा कार्यकर्ताओं की मौजूदगी में पार्टी ने जमकर जश्न मनाया। शिवराज का गुणगान किया, कार्यकर्ताओं का सम्मान किया। हाल ही में बिहार चुनाव में मिली जीत, कर्नाटक का संकट टलने और तमाम आरोपों के चलते यूपीए सरकार की हो रही किरकिरी के बाद यक़ीनन भाजपा के दिग्गजों को भोपाल का ये जश्न बहुत रास आया होगा। इधर, राजधानी में ही कांग्रेस के विधायकों ने भी जमकर ड्रामा किया। मौन जुलूस, शर्म दिवस, पैदल मार्च और जाने क्या क्या?  ख़ैर, सियासी ड्रामेबाज़ी का दौर है, कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता।
        2003 के आख़िर में राज्य के मतदाताओं ने दिग्विजय सिंह के नेतृत्व को किस तरह नकारा था, आपको याद होगा। बिजली का भारी संकट, बेहद ख़राब सड़कें, बिगड़ता लॉ एंड ऑर्डर, बढ़ता भ्रष्टाचार। ये वजहें थीं दिग्विजय सिंह की काग्रेस से जनता के मोहभंग की। इसके बाद भारी बहुमत से उमा जी आईं, फिर बाबूलाल गौर, फिर शिवराज सिंह... फिर आज का ये जश्न वाला दिन। यक़ीनन सीएम के तौर पर शिवराज सिंह के पांच साल पूरे करना स्थाईत्व की निशानी है, लेकिन ये बात भला मुझे क्यों ख़ुश करने लगी? सत्ता में दस साल रहकर ये स्थाईत्व तो दिग्विजय सिंह ने भी दिया था। वो तो उनका मैनेजमेंट गड़बड़ा गया, वरना स्थाईत्व तो चल ही रहा होता।
        दरअसल, ये तमाम बातें मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि मध्य प्रदेश के नागरिक के तौर पर मेरा भी जश्न मनाने को दिल करता है। मैं भी चाहता हूं कि यहां की तरक्की और तरक्की के लिए उठे सरकार के क़दम मेरे दिल को भी सुकून दें। अब सिर्फ़ इस बात के लिए कि शिवराज सिंह सत्ता के पांच बरस पूरे कर रहे हैं, मैं क्यों ख़ुश हो जाऊं? ना मैं किसी पार्टी का कार्यकर्ता हूं, ना ही मेरे गांव में चौबीस घंटे बिजली रहती है, ना ही सड़कों का ऐसा कायाकल्प हो गया कि तबीयत बाग-बाग हो उठे। कहीं ये मिशन 2013 की तैयारी तो नहीं? सौ फ़ीसदी ये वही है। विकास, हिंदुस्तान की राजनीति का नया मुद्दा है, जिसकी धार देखी भी जा रही है। मोदी, नीतीश, शीला दीक्षित, नवीन पटनायक अपने-अपने राज्यों में कुछ ऐसी ही ख़ुशनुमा तस्वीर पेश कर रहे हैं। बेहद लोकलुभावन चेहरे के साथ पार्टी यहां जनता के बीच जा रही है। शिवराज सिंह को अगले चुनाव में ऐसे ही पेश किया जाएगा, ये बात तय है।
         शिवराज सिंह के पास अपने सपनों को पूरा करने के लिए इस पारी में तीन साल का लंबा वक़्त बाक़ी है। पिछड़े और बीमारू मध्य प्रदेश को स्वर्णिम मध्य प्रदेश में तब्दील करने के लिए उनके पास अच्छा नज़रिया है। देखते हैं, क्या होता है। जिस रोज़ कामों में और तेज़ी आएगी, सरकार और संजीदगी से तरक्की की दिशा में सोचेगी, काम करेगी... उस दिन ना केवल कार्यकर्ताओं का बल्कि मतदाताओं का भी सम्मान होगा।

"द लेडी"

 


"अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र की नींव है, अगर आप बदलाव चाहते हैं तो आपको सही रास्ते पर चलना होगा"- आंग सांग सू ची

क़रीब दस बरस गुज़र गए, उन्होंने अपने दोनों बेटों को नहीं देखा है। वे दादी बन चुकी हैं, लेकिन अब तक अपने पोतों को गले से नहीं लगा सकी हैं। पिछले 21 में से 15 बरस उन्होंने अपने घर की चहारदीवारी में नज़रबंदी में काटे हैं। इस दौरान सारी दुनिया से वो कटी रहीं। न किसी से बात करने की इजाज़त, न फ़ोन का कनेक्शन और न ही दुनिया की ख़बर रखने के लिए इंटरनेट। साथ के नाम पर बस दो महिला सहयोगी और कभी-कभार मिलने वाले डॉक्टर और वक़ील।

ये कहानी है ‘द लेडी’ की। जी हां, उस मुल्क़ में द लेडी तो सिर्फ़ आंग सांग सू ची ही हैं। दो दशकों से भी ज़्यादा वक़्त हो गया, वो म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के लिए शांतिपूर्ण तरीके से अपनी आवाज़ रख रही हैं। उस सैन्य शासन के ख़िलाफ़, जो क़रीब 50 बरसों से म्यांमार में जमा हुआ है। अब भी बर्मा की अवाम की उम्मीद हैं, आंग सांग सू ची। 65 वर्षीय, बेहद शांत, मीठा बोलने वाली आंग सांग सू ची को 1991 में शांति के लिए नोबल पुरस्कार से भी नवाज़ा जा चुका है। म्यामांर के नेशनल हीरो रहे आंग सांग की ये बेटी पूरी जीवटता और जज़्बे के साथ सैन्य शासन के ख़िलाफ़ लोहा ले रही है। शनिवार को उनकी नज़रबंदी ख़त्म हो गई, जैसे ही वे अपने घर से बाहर निकलीं, उनके समर्थकों के बीच ख़ुशी की लहर दौड़ गई। सू ची की आंखों में अब भी वही चमक थी, अब भी अपने देश में लोकतंत्र की स्थापना का ख़्वाब उतना ही मुखर था। बकौल अमरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, वे उनके नायकों में से एक हैं। दुनिया भर में सू ची की रिहाई का स्वागत हो रहा है।

सू ची ने तानाशाही के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण और अनूठे तरीके से लड़ाई लड़ी है। एक सादगी भरा पारिवारिक जीवन जीने वाली महिला का पहले नेता बनना और फिर दुनिया के सबसे मशहूर क़ैदी में तब्दील हो जाना इसी का हिस्सा रहा है। उनकी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (NLD) ने 1990 के आमचुनावों में भारी बहुमत हासिल किया था, लेकिन वहां के शासक ने इन नतीजों को नहीं माना। सैन्य शासन जारी रहा, सू ची ने लंबा वक़्त नज़रबंदी में गुज़ारा। पढ़कर और पियानो बजाकर। 2003 में उनका बड़ा ऑपरेशन भी हुआ, जिसके बाद उन्हें घर में क़ैद कर दिया गया।

1990 के बाद बर्मा में 7 नवंबर को फिर चुनाव हुए। सू ची की पार्टी ने चुनाव की नियमावली पर सवाल उठाते हुए चुनाव में हिस्सा नहीं लिया। पार्टी के कुछ बड़े नेताओं ने नेशनल डेमोक्रेटिक फोर्स का गठन कर चुनाव में उतरने का फ़ैसला लिया। उनका मानना रहा कि बहिष्कार से लोकतंत्र की राह आसान नहीं रह जाएगी। लेकिन नतीजा वही रहा, सेना के समर्थन वाले नेशनल सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट एसोसिएशन ने जीत हासिल कर ली है। संयुक्त राष्ट्र संघ और पश्चिमी देशों ने चुनाव की पारदर्शिता पर सवाल उठाए हैं।
बात सिर्फ़ इतनी है कि हम ज़रा ज़रा से मसलों पर टूटने लगते हैं। इतना सब सहने के बाद भी वे अपने समर्थकों से कहती हैं कि 'उन्हें उम्मीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए, ना ही अपना दिल छोटा करना चाहिए'। वे कहती हैं, ‘सुनने और कहने का एक तय वक़्त होता है’। वे अब भी कहती हैं कि ‘हिम्मत हारने की कोई वजह नहीं है’। वे 'शांतिपूर्ण क्रांति' चाहती हैं, वे जानती हैं कि सरकार उन्हें किसी भी वक़्त फिर नज़रबंद कर सकती है और वे इसके लिए तैयार भी हैं। उन्हें भरोसा है कि म्यांमार में लोकतंत्र ज़रूर आएगा, भले ही इसमें वक़्त लगे। लोकतंत्र की बहाली लिए लड़ रही ‘द लेडी’ के जज़्बे को सलाम।।

बातें बालाघाट की: पहली किस्त

मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह सरकार की दूसरी पारी में तीन मंत्री इस ज़िले का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, ठीक उसी वक़्त केंद्र की अटल बिहारी वायपेयी सरकार में इस संसदीय क्षेत्र के सांसद मंत्री थे। यानी कुल चार मंत्री... एक ऐसे ज़िले से चुनकर भोपाल और दिल्ली में राजसत्ता का सुख भोग रहे थे, जब उनके निर्वाचन क्षेत्र दिनों-दिन बीमारू की श्रेणी में शामिल होते जा रहे थे। मैं समय की उस ख़ामोश हो चुकी लहर का ख़ास तौर पर इसलिए ज़िक्र कर रहा हूं क्योंकि यही वो दौर था, जब मैंने लोकतंत्र के जलसे में पहली आहूति दी थी। जी हां, पहली दफ़ा वोट डाला था। यही वो दौर था, जब मेरे अंदर राजनीतिक सोच और विचारधारा पनपने लगी थी। नागरिक होने का एहसास होने लगा था। इसके बाद न ही राज्य सरकार के ये तीनों मंत्री ही जीत सके और न ही केंद्र की सत्ता का सुख पा चुके सांसद महोदय।

मैं बात कर रहा हूं, बालाघाट की। मध्य प्रदेश का एक ज़िला है बालाघाट। मैंने यहीं जन्म लिया है। महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा पर बसा एक शांत और ख़ूबसूरत शहर। प्रकृति यहां किस कदर अपनी ममता लुटाती है, ये शब्दों में कह पाना तो मुश्किल है। लेकिन कभी अगर आप यहां आएं तो पाएंगे कि सतपुड़ा की सरपरस्ती बालाघाट की ख़ूबसूरती में चार चांद लगा देती है। कुदरत का अकूत ख़ज़ाना यहां की ज़मीन में दबा हुआ है। एशिया की सबसे बड़ी कॉपर की खुली खदान इसी ज़िले के मलाजखंड में है। भरवेली अपने स्तरीय मैगनीज़ के लिए दुनिया भर में मशहूर है। इसके अलावा पूरे ज़िले में कहां-कहां मिट्टी अपने अंदर क्या-क्या समेटे हुए है, कहना मुश्किल है। संसाधनों की बात करें तो यहां का बांस भी विश्वस्तरीय है, जिसकी दुनिया भर में ख़ासी मांग है। यहां का सागौन काफ़ी उन्नत श्रेणी का है। यहां का उत्कृष्ट कोटि का चावल भी अपनी अलग ही पहचान रखता है। खेती के लिए यहां की ज़मीन उपजाऊ है, पानी की कोई कमी नहीं है। वन संपदा के लिहाज़ से भी बालाघाट काफ़ी समृद्ध है। कुल मिलाकर पहली नज़र में इस ज़िले की एक ख़ुशनुमा तस्वीर उभरकर सामने आती है, जो किसी भी क्षेत्र की तरक्की के लिए पहली ज़रूरी शर्त है।
       इतना सब होने के बाद भी, आज़ादी के इतने बरसों के बाद तरक्की की दौड़ में बालाघाट कहीं नहीं है। सरकार रेवेन्यू का बड़ा हिस्सा यहां से हासिल करती है, लेकिन यहां के विकास के नाम पर अगर ईमानदारी से सोचा जाता तो आज शायद तस्वीर कुछ और ही होती। लेख की शुरुआत में ही मैंने बालाघाट के नेतृत्व का ज़िक्र किया है, वो इसलिए क्योंकि राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव हमेशा ही यहां विकास में रोड़ा बनता रहा है। आज़ादी के बाद जाने कितने सांसद हुए, कितने ही विधायकों को राज्य मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व करने का मौक़ा मिला, लेकिन विकास को लेकर शायद ही कोई सियासतदां संजीदा हुआ हो। बात चाहे भोलाराम पारधी की हो, चिंतामनराव गौतम की, पीसीसी के अध्यक्ष रह चुके नंदकिशोर शर्मा की हो या विधानसभा के अध्यक्ष रह चुके तेजलाल टेंभरे की हो, कोई भी अपने क़द के मुताबिक़ बालाघाट के साथ न्याय नहीं कर सका। इसके अलावा शंकरलाल तिवारी, थानसिंह बिसेन, एनपी श्रीवास्तव, मधुसूदन गौतम, राणा हनुमान सिंह, सुरेंद्र खरे, विपिन पटेल, रमणीक लाल त्रिवेदी, लोचनलाल ठाकरे, यशवंतराव खोंगल, ओझा भाऊ रहांगडाले, नीलकंठ बनोटे, कचरूलाल जैन, मोतीराम ओड़गू, लोचनलाल ठाकरे, भुवनलाल पारधी, मुरलीधर असाटी, कन्हैया लाल खरे, चित्तौड़ सिंह, महिपाल सिंह उईके, प्रताप लाल बिसेन, झनकार सिंह नगपुरे, दिलीप भटेरे, लिखीराम कावरे आदि ने भी लंबे समय तक जिले की बागडोर अपने हाथ में रखी (सभी नेता दिवंगत हैं) । सभी अपने आप में बड़े नाम थे, शिखर पर बैठे राजनीतिज्ञों से इनकी ख़ूब बनती थी। जिले के विकास के लिए ये दोस्ती कभी काम आई हो, ऐसा देखने को नहीं मिला। मौजूदा राजनीतिज्ञों की बात करें, तो बालाघाट विधानसभा से विधायक और राज्य सरकार में काबीना मंत्री गौरीशंकर बिसेन लंबी पारी खेल चुके हैं और सर्वमान्य नेता हैं। कटंगी से विधायक विश्वेश्वर भगत दो बार सांसद रह चुके हैं, अर्जुन सिंह सरकार में मंत्री रह चुके हैं। बालाघाट के मौजूदा सांसद केडी देशमुख पहली बार दिल्ली गए हैं, लेकिन पांच मर्तबे विधानसभा में जनता की नुमाइंदगी कर चुके हैं। लगातार हार का सामना कर रहे तेज़ तर्रार नेता कंकर मुंजारे के तेवर मध्य प्रदेश विधानसभा में कई बार देखे गए हैं। उनकी पत्नी अनुभा मुंजारे भी लगातार दो बार बालाघाट नगर पालिका का नेतृत्व कर चुकीं हैं। वारासिवनी विधायक प्रदीप जायसवाल तीसरी बार विधायक बने हैं। जनता के बीच ख़ासे लोकप्रिय हैं, लिहाज़ा वारासिवनी नगर पालिका में अपनी पत्नी को अध्यक्ष बनवाने में क़ामयाब रहे। बैहर से विधायक भगत नेताम भी अपने पिता सुधनवा सिंह नेताम की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। बैहर से ही विधायक रह चुके पूर्व मंत्री गणपतसिंह उईके का जादू अब ख़त्म सा हो गया है। इधर लांजी विधानसभा में पूर्व मंत्री दिलीप भेटेरे के युवा पुत्र रमेश भटेरे विधायक हैं। परसवाड़ा से भी युवा विधायक रामकिशोर कावरे युवा हैं, पहली बार विधानसभा पहुंचे हैं। कटंगी से ही दो बार विधायक रहे पूर्व मंत्री तामलाल सहारे इन दिनों मौक़े की तलाश में हैं। परिसीमन से पहले वजूद में रही खैरलांजी सीट से मंत्री रहे बाबा पटेल कहां ग़ायब हैं, पता नहीं।

कुल मिलाकर नेताओं की लंबी फेहरिस्त है। सभी बड़े नाम हैं। फिर ज़िले का नाम बड़ा क्यों नहीं है, अहम सवाल है। आज़ादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस सत्ता में रही है, और बालाघाट को कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है। विधानसभा की 6 सीटों (परिसीमन से पहले 8) पर कांग्रेस का वर्चस्व हुआ करता था। बालाघाट को कमलनाथ के प्रभाव वाला ज़िला माना जाता है। ये कितना सच है, कहा नहीं जा सकता। लेकिन हां, कांग्रेस का पत्ता भी कमलनाथ के इशारे के बग़ैर नहीं हिलता, ये बात सौ फ़ीसदी सही है। नाथ साहब जब भी बालाघाट आते हैं, इसे गोद लेने की बात कह देते हैं। जनता ख़ुश हो जाती है, ख़ूब तालियां पीटती हैं। वैसे मैंने एक बात जो बहुत शिद्दत से महसूस की है, वो ये है कि कमलनाथ बालाघाट में कांग्रेस की कमान ऐसे हाथों में रखना चाहते हैं, जो उनके दरबार में सिर्फ़ सिर झुकाकर खड़े रहना जानते हों। टिकटों के बंटवारे में ये बात साफ़ दिखती है, जिताऊ उम्मीदवार कांग्रेस की टिकट शायद ही हासिल कर पा रहे हों। चाटुकारिता की इस गंदी राजनीति में बालाघाट को बहुत नुक़सान हुआ है। न ही अच्छे नेता मिल सके, न ही विकास हो सका।
         बात भाजपा की करें, तो कोई शक़ नहीं... ज़िले की राजनीति में इस समय भाजपा ड्राइविंग सीट पर है। पार्टी के दिग्गज नेता गौरीशंकर बिसेन ख़ुद सरकार में मंत्री है। अनुभवी नेता केडी देशमुख पार्टी से सासंद हैं। ज़िले के अंधिकांश भाजपा विधायक युवा हैं। शिवराज सरकार की दूसरी पारी है, जिसके मुक़ाबले ज़िले में काम हो रहे हों, ऐसा दिखता तो नहीं। सभी नेता बहुत जल्दबाज़ी में दिख रहे हैं, अब उन्हें ही जल्दी है तो जनता भला क्यों देर लगाएगी। मिलते हैं 2013 में।
                                        इस वक़्त ज़िले की राजनीति में जितने भी अनुभवी नेता हैं, वो अपनी विदाई का इंतज़ार कर रहे हैं। लेकिन नया नेतृत्व असरदार तरीके से आ नहीं रहा है, सो वो भी डटे हुए हैं। एक समय था, जब सत्तर के दशक में रामस्वरूप शुक्ला की अगुवाई में युवा तरुणाई की ऐसी आंधी चली कि भोपाल तक इसकी गूंज सुनाई दी थी। शुक्ला ने कांग्रेस से युवाओं को विधायक की टिकटें भी दिलवाई, लेकिन राजनीतिक तौर पर वे विफल रहे। मैं बालाघाट में हुए एक कार्यक्रम में गया था, जहां शुक्ला जी भी मौजूद थे। जब उनसे मार्गदर्शन के तौर पर दो शब्द कहने को कहा गया तो उन्होंने साफ़ कहा था कि जिसे ख़ुद ही मार्ग के दर्शन नहीं हुए, वो दूसरो को क्या मार्गदर्शन देगा? उनकी पीड़ा सहज ही समझी जा सकती थी। उसी दौर के युवा तुर्क अशोक मिश्रा, इंदर चंद जैन सरीखे नाम भी नेपथ्य में गुम हो गए।
                                  सही नेतृत्व न होने का एहसास हमें इसलिए कचोटता है, क्योंकि दुनिया तेज़ी से आगे बढ़ रही है और मुट्ठी भर राजनीतिज्ञों ने आज तक हमारे ज़िले से छल ही किया है। यक़ीन मानिए वक़्त करवट ले रहा है, नया ख़ून सुनियोजित तरीक़े से दस्तक दे रहा है। वो दिमाग़ रखता है, तकनीक से लैस है, मूल्यों को समझता है, विरासत को आगे बढ़ाना जानता है, तरक्की पसंद है। अपने बालाघाट को और सहते वो नहीं देख पाएगा। कहीं ऐसा न हो अगला चुनाव जमे हुए राजनीतिज्ञों की ज़मीन ही छीन ले।

“झुक के मिलते हैं तो कमज़ोर ना समझना, शाख फलदार हो तो लचक आ ही जाती है।”


(लेखक युवा पत्रकार हैं, फिलहाल दैनिक भास्कर, भोपाल में हैं )

एक चव्हाण गए, दूसरे आए


तो भईया, नप गए चव्हाण। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की लंबे समय से टल रही विदाई आख़िरकार हो ही गई। उनकी जगह 7 रेस कोर्स के क़रीबी और गांधी परिवार के नज़दीकी माने जाने वाले पृथ्वीराज चव्हाण सूबे की कमान संभालेंगे। हम भूले नहीं है, किस तरह विलासराव देशमुख की विदाई के बाद महाराष्ट्र के लिए नए नेतृत्व के तौर पर साफ़ छवि के बेदाग़ और कद्दावर नेता की तलाश की जी रही थी। इसी सियासी कसरत की खोज थे, अशोक चव्हाण। जो राज्य की देशमुख सरकार में मंत्री तो थे ही साथ ही सूबे के रसूख़दार राजनीतिक खानदान के वारिस थे। लेकिन जिस तरह से आदर्श सोसायटी घोटाले में कथित तौर पर उनका नाम आया, उससे उनकी छवि पर बट्टा तो लगा ही साथ ही उनका पद भी चला गया।

सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस वाकई दाग़दार छवि के लोगों को बाहर का रास्ता दिखाना चाहती है, जैसा उसने चव्हाण और कलमाडी को बाहर कर किया या ये महज़ उस हंगामे को दबाने की क़वायद है, जो शीतकालीन सत्र में हो सकता है। यक़ीनन, कांग्रेस ने इस क़दम से नैतिक तौर पर बढ़त हासिल कर ली है और विपक्ष को मुद्दाविहीन कर दिया है। भ्रष्टाचार को लेकर विपक्ष का हथियार फिलहाल तो भोथरा ही दिखाई देता है। 2G स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर आरोपों से घिरे ए राजा को लेकर कांग्रेस की क्या रणनीति होती है, ये ग़ौर फ़रमाने वाली बात होगी। यहां तो मामला घर का था, लेकिन वहां गंठबंधन का लिहाज़ रखना होगा। कांग्रेस की अपनी मजबूरियां भी हैं, सो पता चल जाएगा कि क्या पार्टी वाकई दाग़ियों को बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है?

बात महाराष्ट्र की करें, तो पृथ्वीराज चव्हाण बेहद मुश्किल वक़्त में राज्य की बागडोर संभाल रहे हैं। फिलहाल वे राज्यसभा से सांसद है। केंद्र की राजनीति के साथ उनका लंबा संसदीय कार्यानुभव भी है, लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति में उनका दख़ल न के बराबर रहा है। तिस पर राज्य में सत्ता में सहयोगी एनसीपी के नेता शरद पवार से भी उनके बहुत अच्छे ताल्लुक़ात नहीं हैं। लिहाज़ा देखना होगा किस तरह वे गठबंधन की गाड़ी को हांकते हैं? वैसे उनका कहना है कि वे केंद्र में रहकर काफ़ी क़रीब से गठबंधन सरकार को देख चुके हैं और जानते हैं इस धर्म का पालन कैसे किया जाना है? लेकिन चुनौतियां तो फिर भी हैं, राज्य में किसानों की हालत बदतर है। गांवों में बिजली संकट है। कई पुराने और अनुभवी चेहरों को दरकिनार कर उन्हें सत्ता का ताज सौंपा जा रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे ख़ुद और अपने आकाओं को सही साबित करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखेंगे।।

अब देर नहीं लगती...

अब देर नहीं लगती, इंसान को परखते
हर मील पे देखा है, पत्थर को बदलते
अपने सफ़र पे हमको, जमकर रहा ग़ुमान
सहमे हुए सुनते हैं, औरों के तजुर्बे
लो देख ली दुनिया, लो कुछ नहीं हासिल
रक़ाब पर लिहाज़ा, हम पांव नहीं रखते
मुमक़िन है तुमको ना हो, इस हश्र पर यकीं
होता तुम्हें भी पास, इस राह ग़र गुज़रते

- निशांत बिसेन

अबके जो मिले, तो क्या ख़ूब मिले...

कैसी रही आपकी दीपावली? भई मैं तो आज ही छुटि्टयां मनाकर घर से लौटा हूं। बेहद शानदार रहा बीता हफ़्ता। न कामकाज की फ़िक्र रही, न ही ऑफिस की चिंता सताई। उत्सव के रंग ऐसे बिखरे कि साहब क्या कहने। एकबारगी तो ज़िंदगी पटरी पर लौटती दिखाई दी, लेकिन रात भर के सफ़र के बाद आज अलसुबह ही ये ख़ुशफ़हमी दूर हो ली। आज फिर दफ़्तर जाना है।
ख़ैर, ब्लॉग पर लंबे समय के बाद मौजूदगी दर्ज करा रहा हूं। जहां तक याद पड़ता है, पिछले लिखे और इस लिखे के दरमियां तक़रीबन 4 महीनों का फ़ासला है। लिखना छूट सा गया है। आज न जाने क्या सूझी, सफ़र की थकान को नज़रअंदाज़ करते हुए मैं लिख रहा हू। यक़ीन नहीं हो रहा है।
                                      पता है, इस बार की छुट्टियों में सबसे ख़ास बात क्या रही... मैं स्कूल, कॉलेज, मोहल्लों और शहर के उन तमाम दोस्तों से मिला, जो लंबे समय से पाए ही नहीं जा रहे थे। अभी कुछ ही बरस तो गुज़रे हैं, हम इकट्ठे साइकल पर सवार होकर शहर भर घूमा करते थे। ताज़ा ख़बर ये है कि यारों के दिन फिर गए हैं। ज़्यादातर दोस्त प्रशासनिक सेवाओं में चले गए हैं। कुछेक डॉक्टर हो गए हैं, कुछ वक़ीलों की, तो बहुतेरे इंजीनियरों की जमात में शामिल हो गए हैं। कुछ स्थानीय राजनीति में पैठ जमाने की जद्दोजहद कर रहे हैं, तो कुछ ने साबित कर दिया है कि वे अपने पुश्तैनी कारोबार को बेहतर तरीके से आगे बढ़ा सकते हैं। पत्रकार मैं अकेला हूं। सबसे मिलना दिल को सुकून दे गया। एक अजीब सी बेचैनी, एक दिल को दुखाने वाला खालीपन, जो हर वक़्त महसूस होता रहता है... वो इस दौरान जाता रहा।
                                       बहुत लंबा वक्त नहीं बीता है, मुझे घर छोड़े या नौकरी थामे। शायद यही वजह है कि दोस्तों, परिवार वालों, रिश्तेदारों या किसी के भी छूटने पर दर्द बयां न करने का सलीका मुझमें अब तक नहीं आ सका है। हम तो कहते हैं साहब कि न ही आए तो बेहतर है। इस प्रवास के दौरान एक बात जो मैंने शिद्दत से महसूस की.. वो ये रही कि मैं घर लौट जाना चाहता हूं। इस हसरत को पूरा करने की क़ीमत क्या हो सकती है, इसका अंदाज़ा मुझे है।

तो बात यारों की हो रही थी। यार अब भी चाहते हैं कि मैं अपने शहर लौटकर राजनीति में किस्मत आज़माऊं। अब यारों का कहना है तो सही ही होगा। यार भी कभी ग़लत हुए हैं भला? वैसे भी कैलकुलेशन करके ज़िंदगी की राहों पर तो कम से कम नहीं चला जा सकता। अब तक का रास्ता वैसे भी बिना हिसाब-किताब के कटा है। मेरा मानना है कि अगर मेहनत की जाए तो मैं अपने मौजूदा पेशे यानी पत्रकारिता में काफ़ी क़ामयाब हो सकता हूं (बेहद निजी राय है)। पत्रकारिता से सियासत में जाना, आप सोचेंगे बड़ा महत्वाकांक्षी आदमी है। चलिए मान लिया मैंने कि मैं महत्वाकांक्षी हूं, इसमें बुराई भी क्या है? वैसे ही सियासत मवालियों और नाक़ाबिलों के हाथों में है। हम जैसों के पास कम से कम महफ़ूज़ तो रहेगी। मैं ये नहीं समझ पाता कि क्यों मेरे पिता को इससे इत्तेफ़ाक रहता है कि मैं सियासत में हाथ आज़माऊं? क्यों मां को इस शब्द से ही नफ़रत है? आख़िर क्यों मेरे पड़ोसी सबसे मिलने के मेरे बेतकल्लुफ़ मिज़ाज को लेकर अपनी रातों का सुख-चैन लुटाते हैं? क्या इतना बुरा है राजनीति में जाने का सोचना भी?
                  ये तो एक भाव था, आया सो लिख दिया। फिलहाल तो पैसों और नौकरी दोनों की दरकार है। फ़ैसला सोच-समझ कर लेना है।

इस दफ़ा जब घर पर था, एक जनाब मिले। उनकी पीड़ा ये थी कि बालाघाट (मेरा गृह ज़िला, मध्य प्रदेश की राजधानी से तक़रीबन 500 सौ किमी की दूरी पर बसा बेहद ख़ूबसूरत और उपेक्षित शहर)को सही तरीक़े से पेश नहीं किया जाता। भई इस दिशा में आप कुछ करते क्यों नहीं, राजधानी में पत्रकार हैं? मुझसे अनायास ही पूछा गया ये सवाल उस वक़्त तो मुझे निरुत्तरित कर गया... लेकिन पड़ताल में जुटा हूं। बालाघाट को लेकर कुछ ख़ास तथ्य और रोचक बातें लेकर जल्द आपके सामने आऊंगा। यक़ीन मानिए, सतपुड़ा की गोद में बसे इस बेहद ख़ूबसूरत शहर को जानबूझकर उपेक्षित रखा जा रहा है।

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मेरे गांव में लक्ष्मी पूजा के तीसरे दिन गाएं खेलती हैं। आप सोचेंगे ये क्या, गाएं कैसे खेलती होंगी? दरअसल, इस ख़ास दिन पूरे गांव के मवेशी एक जगह इकट्ठे किए जाते हैं। यहां चरवाहा और उस समाज विशेष के लोग गौ माता की पूजा करते हैं। सारे मवेशियों की जमकर ख़ातिरदारी होती है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश के गांवों में होने वाले इस उत्सव की धूम का अंदाज़ा आपको हो रहा होगा। वैसे हम जैसे पढ़े-लिखे, समझदार लोगों ने इन उत्सवों से दूरी बना ली है।
                     एक और बात, मुझे भोपाल आए तीन महीने ही हुए हैं। इससे पहले वाला ठौर यानी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर अब भी बहुत याद आता है। उस धूल-माटी वाले शहर से दिल लग सा गया था, वहां के साथियों को छोड़ने का सोग़ अब तक है। ख़ैर, ज़िंदगी है.. फिर मिलेंगे। लेख पढ़ने में आपको बेढंगा लग सकता है, क्या करूं... बेतरतीबी छिपाए नहीं छिपती।।

- निशान्त बिसेन

खेल खत्म….खेल शुरू......पर क्या निकलेगा कोई नतीजा ?


खेल खत्म हो गए पर असली खेल तो अब चालू हुआ है.....जो खेल हुआ उसमे भले ही भारत की जय हुई हो....पर अब जो खेल चल रहा है उसमे अगर कोई हारेगा तो भारत..इस खेल में जितना सच सामने आएगा उतनी भारत की नाक पूरे विश्व के सामने कटेगी और ये खेल भी बहुत खतरनाक है इस खेल में अपनों को ही अपने देश से गद्दारी करने की सजा मिलेगी पर हारेगा हमारा देश ही...जी हां कॉमनवेल्थ खेल खत्म हो गया पर अब जांच शुरू हो गई है कि किसने कितना पैसा खाया..और यही है असली खेल के पीछे का खेल जहां हमेशा भारत हारता रहा है...हर बार की तरह इस बार भी खूब हल्ला हो रहा है....घोटाले को लेकर हाय तौबा मची हुई है पर इतिहास गवाह है इस देश का कि हम न तो भ्रष्टाचार को रोकने में कामयाब रहे हैं और न भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने में...आज तक इस देश में जितने घोटाले हुए हैं उनमे से शायद ही किसी को सजा हुई है....पर हमे एक चीज में महारत हासिल है वो है जांच कमेटियां बनाने में....पहले घोटाला होता है देश के गरीबों का पैसा नेता और अधिकारी डकार जाते हैं और फिर बनती है जांच कमेटी... जिसका बार बार कार्यकाल बढ़ा दिया जाता है और 20 से 30 साल बीत जाते हैं न तो किसी को सजा होती और न ही कार्रवाई होती है....वोफोर्स कांड हो...ताबूत कांड हो...हवाला कांड हो या और न जाने कितने ही कांड इस देश में हो चुके हैं कभी इस देश में किसी नेता को सजा नहीं हुई..इस बार भी एक जांच कमेटी बना दी गई है......पता नहीं कितनी बार इसका कार्यकाल बढ़ेगा...सजा किसी होगी इसकी उम्मीद शायद ही देश के लोगों को हो...पर यहां एक बड़ा सवाल ये पैदा होता है कि हम सिर्फ कागजी जांच पर ही क्यों भरोसा रखते है ? क्यों नहीं कुछ ऐसा हो की भ्रष्टाचार हो ही न पाए ऐसा कानून बने.. क्यों न कुछ ऐसा हो अगर कोई पैसा खा रहा है तो उसे समय रहते ही पकड़ लिया जाए...आखिर क्यों हमारा देश की जांच एजेंसी इस बात का इंतजार करती है कि पहले घोटाला हो जाए और जब हल्ला होगा तो जांच कर लेंगे...वैसे जो भी व्यक्ति जमीन से जुड़ा है वो बहुत अच्छे से जानता है कि इस भ्रष्टाचार की जड़े क्या हैं...आज हमारे देश के छोटे से गांव से ये भ्रष्टाचार चालू होता है और संसद में बैठे सांसदों तक पहुंचता है...गांव में एक जाति प्रमाण पत्र बनवाने मैने खुद बचपन में दौ सौ रुपए दिए हैं...और सुनिए एक बार कॉलेज चुनाव के दौरान हमारे गुट का दुसरे गुट से झगड़ा हो गया हमने शायद 3 या 4 हजार रुपए दिए थाने में बैठे अधिकारी को और किसी पर मामला दर्ज नहीं हुआ....मैं कॉलेज की पढ़ाई करने गंजबासौदा से भोपाल अप -डाउन करने लगा....कभी मैने ट्रेन में टिकट नहीं लिया..हमेशा बिना टिकट जाता था..और मेरे साथ ऐसा करते थे करीब 40 से 50 लड़के....महीने में शायद एक या दो बार हमे टिकट चैक करने वाला मिल जाता था हम सब 20-20 रुपए मिलाते थे और करीब 800 से हजार रुपए देते थे टीसी को और फिर क्या पूरे महीने तक हमे लायसेंस मिल जाता था बिना टिकट यात्रा करने का...भोपाल में कभी मैने ड्राइविंग लाइसेंस नहीं बनवाया कभी ट्रैफिक पुलिस वाला मिल जाए तो बस 50 रुपए में हम बच जाते थे फिर चाहे बाइक में तीन बैठे हों या तीस....कुल मिलाकर 50 रुपए में मैं कानून खरीद लेता था और 50 रुपए लेने के बाद ये पुलिस वाला भी कई दिनों तक हमसे कुछ नहीं कहता था...खैर मैरे अनुभव और भी हैं पर सब बताना मुश्किल है....कहने का मतलब ये है कि भ्रष्टाचार देश के एक छोटे से गांव से पैर पसारना चालू करता है और फिर संसद में बैठे नेताओं तक पहुंचता है....और एक बात और जब एक नेता 25 लाख रुपए अपनी पार्टी को देकर विधायक का टिकट लाता है और तब वो पांच साल में पांच करोड़ कमाने की सोचता है..एक पुलिस का सिपाही बनने के लिए मेरे ही एक करीबी दोस्त ने साढ़े तीन लाख की रिश्वत दी है...आज अगर मैं उससे कहूं की रिश्वत क्यों लेते हो तो उसका एक ही जवाब होता है कि जो दिया वो वसूल तो करेंगे ही...... मीडिया में भी पेड न्यूज के नाम पर सिर्फ रिश्वत लेने का काम चल रहा है...हम आधे घंटे किसी नेता या मुख्यमंत्री की तारीफ दिखाते हैं बदले में कहने को तो विज्ञापन का पैसा मिलता है पर वो एक तरह की रिश्वत ही है अपने अंदर के पत्रकार को आधे घंटे तक मारके रखने की... कॉमनवेल्थ में हुए घोटाले में भले ही जांच कुछ कहे पर आज देश के कोने कोने में जो भ्रष्टाचार रुपी राक्षक फैला है जब तक हम उसे नहीं मारेगे तब तक कुछ नहीं होने वाला...खैर बचपन में मैने भी बहुत रिश्वत ली है पापा कहते थे परीक्षा में अच्छे नंबर लाओ तो चॉकलेट दिला देंगे......और सिर्फ एक चॉकलेट के लिए हम पढ़ाई करते थे......तो सबसे पहले मेरे और आपके अंदर बैठे रिश्वतखोर को मारो फिर पूछना कॉमनवेल्थ में घोटाला किसने किया ?


रोमल भावसार

देश के अंदर बैठे रावण कब जलेंगे ?

चलो सब ठीक हो गया.......हां भाई गलत क्या है सब ठीक हो गया.......खूब हल्ला हुआ.......... खूब शोरशराबा हुआ......... पर शुक्र है कि सब कुछ निपट गया........जी हां यही कुछ शब्द हर उस मुद्दे पर हैं जो पिछले कुछ दिनों से सुर्खियों में थे.......... हम तो दिल में संतोष करके बैठे थे कि भगवान की दया से सब कुछ ठीक हो गया..... पर हमे क्या पता था कि 'फिल्म अभी बाकी है'... पिछले दिनों अयोध्या और कॉमनवेल्थ खूब सूर्खियों में थे...अयोध्या पर फैसला आने के पहले तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे थे........देश की शांति की चिंता भी नेताओं को होने लगी थी.......ये बात अलग है कि पहली बार नेताओं को देश में शांति बनाए रखने की चिंता हुई.... अगर यही सदबुद्धि भगवान ने इन्हे पहले दे दी होती तो 1984 में बेकसूर सिखों की हत्या नहीं होती.....1992 में पूरा देश दंगों की आग में नहीं जलता.....और न ही गुजरात में बहती खून की नदियां...... पर चलों देर आए दुरस्त आए.....खैर कोर्ट का फैसला भी आ गया और पूरे देश के लोगों में जिस तरह शांति थी उससे ये भी पता चल गया की आग कहीं भी लगे उसकी चिंगारी नेताओं के भाषण से ही निकलती हैं.....खैर बात दूसरे मुद्दे की........ कॉमनवेल्थ शुरू होने के पहले खूब हल्ला हुआ....जामा मस्जिद के पास बस में हुई फायरिंग के बाद तो हाय तौबा मच गई...मीडिया ने भी खूब हल्ला मचाया......तैयारियों को लेकर खूब सवाल खड़े किए गए....बात भ्रष्टाचार की भी आई पर आखिरकार सब कुछ सही तरीके से हो गया.....भारत भी 101 मेडल जीतकर दूसरे नंबर पर आ गया....पर मैं आज ये सब बाते क्यों लिख रहा हूं...दरअसल जब हम ये सोचते हैं कि सब सही हो गया असल में बात वहीं से चालू होती है....अयोध्या पर एक बार फिर बयानबाजी चालू हो गई मुस्लिम पर्सनल लॉ और इमाम बुखारी जो कल तक कोर्ट के फैसले को मानने की बात कर रहे थे अब एक बार फिर फालतू की बयानबाजी पर उतर आए हैं.. कुछ यहीं हाल खुद को हिंदुओं का ठेकेदार समझने वाले भगवा संगठनों का है......इधर कॉमनवेल्थ भी निपट गया पर अब उन लोगों पर शिकंजा कसना चालू हो गया जिन्होने खेल के आड़ में खूब पैसा खाया...आज इस सब बातों को लिखने का क्या मतलब है...दरअसल नवरात्रि खत्म हो गई और दशहरा आ गया....फिर रावण का पुतला जलेगा....फिर बात होगी कि बुराई पर अच्छाई के प्रतीक की...पर देश के अंदर बैठे इन रावणों का हम क्या करें ?... हिंदू और मुस्लिम के नाम पर बार बार देश को जलाने बारे एक बार फिर भौकने लगे हैं.... फिर कोशिश हो रही है चिंगारी लगाने की....फिर ये लोग देश से बढ़कर मंदिर और मस्जिद को समझने लगे हैं...फिर 1992 जैसे शब्द सुनाई देने लेगें...कोई मेरी मस्जिद बोल रहा तो कोई मेरा मंदिर... कहीं ऐसा न हो कि हम रावण को जलाने में व्यस्त रहे और ये लोग देश को जला दें....कॉमनवेल्थ में देश का पैसा खाने वाले रावण अभी जिंदा हैं.......देश को खोखला करने वाले कट्टरपंथी लोग भी अभी जिंदा है......नक्सलियों का आतंक सातवें आसमान पर है.....और हम बुराई का अंत करने फिर जलाने जा रहे हैं एक रावण के पुतले को.....आज इस दौर में लोगों को समझना चाहिए कि अगर किसी ने सबसे ज्यादा इस देश को बर्बाद किया है तो वो नेता है ....'नेता' जो सिर्फ अपना हित देखता है.....जरुरत ये भी कि आज सबसे पहले अपने अंदर के रावण को जलाएं और उसके बाद हमारे परिवार में बैठे रावण को मारे....फिर मोहल्ले में...ऑफिस में.....कॉलेज में जो राणव है उनको मारे और देश में राम राज्य तब ही आ सकता है जब रावण हर दिल में मर जाए...नवरात्रि खत्म हो गई..माता की मूर्तियों की विदाई का समय आ गया पर लोगों के दिल में जो मेल भरा होता है...जो स्वार्थ भरा होता हो वो न तो गणेश जी साथ विदा होता है न दुर्गा जी के साथ....दिल में जो पाप है जिस दिन उसका विर्सजन हो जाए उस दिन सब सुधर जाएगा....नहीं तो दिल को बहलाने के लिए हमेशा की तरह यही कहेंगे 'चलो शुक्र है सब ठीक से निपट गया'




रोमल भावसार

ये कैसे डॉक्टर?

 टीवी पर इस वक्त खबर चल रही है कि अंबिकापुर में एक महिला के पेट में ऑपरेशन के समय एक फीट लंबा कपड़ा छूट गया और तीन महीने के बाद उसे निकाला गया....खबर देख कर अचानक उस अंजान महिला के प्रति मन संवेदना से भर गया कितनी तकलीफ सही होगी उसने इन महीनों में...प्रसव के बाद मां बनकर मातृत्व का सुख उठाने की जगह इतने महीने उसने केवल दर्द में काट दिए...इन सब बातों से भला उस डॉक्टर को क्या लेना देना जिसने ऑपरेशन के वक्त लापरवाही की...उसे तो केवल अपने पारिश्रमिक से मतलब यानि ऑपरेशन का पूरा पैसा मिल गया...उसे तकलीफ तब होती जब उसे उसकी फीस पूरी या फिर नहीं मिलती....फिर तो उसकी पांचों इंद्रियां जागृत हो जाती...और इसके लिए वो शायद नवजात बच्चे को बंधक बना कर पैसे लाने को मरीज को मजबूर कर देता...पर यहां बात उसकी लापरवाही की है तो क्या लगता है इसके लिए उसे कैसे बंधक बनाया जाय ताकि उसकी इस लापरवाही के लिए उसे दंडित किया जा सके....यही तो मुश्किल है कि डॉक्टरों को लापरवाही की सजा नहीं मिल पाती और वो एक के बाद एक इस तरह की लापरवाही को अंजाम देते रहतें हैं....लगातार इस तरह की घटनाएं हम पढ़ते या देखते रहते हैं पर इन डॉक्टरों पर कार्यवाई की खबर एक बार भी हमें सुनने,पढ़ने को नहीं मिलती...क्या समझें इसे हम कि आम आदमी की जिंदगी इतनी सस्ती हो गई है कि कोई भी उसके साथ खिलवाड़ कर सकता है....उनकी परवाह करने के लिए ना शासन है,ना कानून,ना भगवान.....डॉक्टर को भगवान का ओहदा देने वाले लोग अब सोचने पर मजबूर हैं कि अब उन्हें क्या कहा जाए.....सोचिये  यही घटना अगर किसी ऊंचे ओहदे वालों के साथ होती तो भी क्या कार्यवाई का स्वरूप यही होता...ये घटनाएं एक साथ कई बातों पर सवालिया निशान लगाती हैं...डॉक्टरी के पेशे पर...शासन के रवैये पर और कानून की कार्यवाई पर....पर ये सवाल हल कौन करेगा ये अपने आप में एक सवाल है...?

हिन्दी हुई बेगानी

विदेशो में जानी पहचानी, और अपने ही देश में बेगानी, अंजानी,... बाहर लोग मेरे बारे में जानना चाहते हैं...लेकिन अपने ही देश में मुझे जानने वाले, सबके सामने मुझे पहचानने से हिचकते हैं...शर्माते हैं.....आप समझ ही गए होंगे की मेरा नाम हिंदी है....मैं एक बहुत ही समृद्व भाषा हूं.....किसी ज़माने में मेरा बहुत नाम था...लोग मुझे हाथो हाथ लेते थे....और मैं लोगों के जुबान पर चढ़ी इठलाती रहती थी.....वैसे तो मैं भारत वर्ष में सालों साल से हूं...लेकिन आज़ादी के बाद 14 सितंबर 1949 में मुझे राजभाषा का दर्जा दिया गया....और 14 सितंबर 1953 को औपचारिक रुप से हिंदी दिवस मनाने का भी फैसला लिया गया...हर साल मुझे आज ही के दिन आमजन तो नही हां सरकारी दफ्तरों में ज़रुर याद कर लिया जाता है... लेकिन उसके बाद फिर से मेरी दुर्दशा शुरु हो जाती है....मेरे नाम पर लाखो करोड़ो खर्च भी होते हैं...लेकिन भी मैं दिनों दिन ग़रीब होती जारही हूं....मेरी जगह मैडम इंग्लिश लोगों की जुबान पर चढ़ती जा रही है...मेरा देश अंग्रेजों से तो आज़ाद हो गया...लेकिन अंग्रेजी का गुलाम बन कर रह गया....मैं अपने देश वासियों से पूछना चाहती हूं कि क्या आपको लगता है कि आप हम वाकई आज़ाद हो गए हैं....

Filhaal bandhe hain hath.

Sabhi ko mera salaam,
Aaj Raipur chhore 1 mahina ho gaya, bahut si yaadein hain... bahut si baatein hain, jinhe shabd dene hain. Lekin kambakhat font support nahi kar raha hai, lihaza likhne se hath bandhe hai. Koshish karunga jald kuch linkhu. Aap sabhi bahut yaad aate hain.

Hamesha aapka,
NISHANT BISEN

Vacuum मतलब 'बाप की ट्रेन'

Vacuum मतलब 'बाप की ट्रेन'... सुनकर थोड़ा अजीब लग रहा है न? आप और हम इससे पहले यही जानते थे न कि Vacuum (वैक्युम) का हिंदी होता है निर्वात, जहां कुछ भी नहीं हो। निर्वात की स्थिति में गैसीय दाब, वायुमंडलीय दाब की तुलना में न के बराबर होता है। लेकिन वैक्युम का ये मतलब भी सही है, सोच में पड़ गए न!  चलिए जनाब दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालिए, सस्पेंस यहीं खत्म करता हूं और बतात हूं कि कैसे होता है वैक्युम मतलब 'बाप की ट्रेन'।
बिहार के कई हिस्सों खास कर जमुई से बख्तियारपुर और गया-जहानाबाद रूट के बच्चे से लेकर बूढे तक कमोबेश वैक्युम का यही मतलब जानते हैं। इनमें से कई लोगों ने तो स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है और ना ही अंग्रेजी का A B C ही जानते हैं... लेकिन Vacuum मतलब बखुबी समझते हैं हां ये दीगर बात है कि इसका मतलब उनके लिए थोड़ा जुदा है। इनमें से कई लोग तो काफी पढ़े लिखे भी हैं लेकिन वो भी किताबों में लिखे अर्थ को भूल गए हैं और नए अर्थ को अपना लिया है। हां उच्चारण थोड़ा अपभ्रंशित होकर वैक्युम से वैकम हो गया है। अब नहीं समझे आप...?
अजी इन लोगों के लिए ट्रेन किसी टॉय ट्रेन जैसी चिज है... जहां मन चाहे रोक लो.... गाड़ी चाहे कोई भी हो लोकल, एक्सप्रेस, मेल या सुपरफास्ट लेकिन इन रूटों पर ये चलती है बैलगाड़ी सरीखी। कोई हॉल्ट आया और ट्रेन के वैक्युम सिस्टम में छेड़छाड़ कर गाड़ी को रोक देना इनके लिए बच्चों के खेल जैसा है। ड्राइवर करे भी तो क्या... और मजाल है जो ट्रेन में सवार स्क्वॉड इनके खिलाफ कोई एक्शन ले ले! चाहे तो इनकी मनमानी सहो या फिर कभी किसी ने रोकने की हिमाकत की तो बस मत पुछो... अगले ही दिन तोड़फोड़ और न जाने कितना फसाद! पहले तो ऐसे लोग जबरदस्ती आरक्षित कोचों में घुस आते हैं फिर आपके ही बर्थ पर टांग फैलाकर कहेंगे एमएसटी हैं रोज का आनाजाना है थोड़ी देर चलेंगे...और दिन में बर्थ पर सोना कैसा....(एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी वाली कहावत तो आपने सुनी ही होगी) ऐसे ऐसे महानुभाव हर स्टेशन पर इतने आएंगे की आपका सफर यूं ही बतियाते-गपियाते कट जाएगा। इनहीं में से चंद लोग दो डब्बों को जोड़ने वाली जगहों पर बैठते हैं ताकि ट्रेन के वैक्युम पाइप से छेड़छाड़ कर ट्रेन को रोका जा सके।
इन लोगों की हरकत से उन्हें थोड़ा फायदा होता है और वे थोड़ी जल्दी घर पहुंच जाते हैं, लेकिन उनकी ऐसी हरकतों से रेलवे को तो नुकसान होता ही है साथ ही उसका खामियाजा हजारों मुसाफिरों को भी भुगतना पड़ता है। खैर उन्हें क्या उनके लिए तो एक ही आदर्श वाक्य है कि 'दुनिया जाए तेल लेने, ऐश तू कर'।

मीडिया है कमाल

‘’मीडिया...यारों चीज बड़ी है कमाल
यहां बिछा है हर तरफ
खबरों का ही मायाजाल...
संपादक रहते हैं हमेशा बेहाल

उन्हें रहता है अक्सर खबरों का ही मलाल

सुबह-शाम, उठते-बैठते हर वक्त

उन्हें आते हैं खबरों के ही सपने

जितनी भी खबरें दो उनके आगे परस

एक बार में जाते हैं वो गटक

थोड़ी देर में खबरें हो जाती है...हजम

और फिर से करते हैं...खबरों का ही महाजाप

पत्रकार करते हैं खबरों का पोस्टमार्टम

ऐंकर करते हैं पोस्टमर्टम रिपोर्ट का बेसब्री से इंतजार’’

और हर मीडिया हाउस की है ऐसी ही सरकार''

नोट: इस कविता के सभी पात्र काल्पनिक हैं...इसका किसी व्यक्ति विशेष से कोई सरोकार नहीं...ये मात्र भावों की अभिव्यक्ति है..अतः इसका गलत अर्थ न लगाएं

क्या नाम दूं?

इस जिंदगी को...
मैं क्या नाम दूं...?

कभी धूप कहूं कभी छांव कहूं
कभी सैलाबों का नाम मैं दूं

कभी शोर कहूं...कभी मौन कहूं
कभी खामोशी का जाम कहूं....



कभी गम की शाम कहूं
तो कभी इठलाती मुस्कान कहूं



कभी खुशियों का पैगाम कहूं
या जीवन का संग्राम कहूं!

मेरी आवाज़ 'इंक़लाब'


बग़ावत का झंडा बुलंद कर, आवाज़ अपनी उठा

कर अपना सर ऊंचा, एक चीख़ ऐसी लगा

हिल जाएं हुकूमत की जड़ें, आंधियां भी चल पड़ें

तू भूखा रह और भूखा ही आगे बढ़

कुछ खाया तूने तो तुझे नींद आ जाएगी

और आंखें बंद की तो आवाज़ भी खो जाएगी

जागना है तुझको, औरों को भी जगाना है

शायद इस बार इंक़लाब तुझे ही लाना है

ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद के नारे बहुत लगा लिए तूने

अब तुझे कुछ कर दिखाना होगा

ना उम्मीदी के सूरज को डुबाकर

उम्मीद की किरण को लाना होगा

तुझे चलना है उस पश्चिम की तरफ

जहां डूबी हुई उम्मीदें हैं...........

तुझे भी डूबना होगा इन्हीं उम्मीदों के लिए

एक नए कल के लिए...

सूरज फिर से निकलेगा, पंछी फिर से गाएंगे

एक नया घर, गांव, प्रदेश, एक नया देश हम बसाएंगे

वो देश जहां खुशहाली हो, हरियाली हो

वो देश जहां हर कंधे पर जिम्मेदारी हो...

आओ मिलकर फिर से एक सवेरा लाएं...

दर्द, भूख, बीमारी, गरीबी हर अंधकार को दूर भगाएं...

आओ मिलकर हम अपनी आवाज़ उठाएं...

शिक्षक दिवस से टीचर्स डे तक...डे ने किया डंडा !




शिक्षक दिवस... यानी दिनों में पिरोया हुआ गुरू को सम्मान देने का दिन......दुनिया बदल गई है....लोग बदल गए हैं.....परम्पराएं भी नई हो गई हैं..... तो शिक्षक दिवस कैसे बच सकता था....अब गुरू टीचर बन गया है........पैर छुने कि बजाए लोग हाथ मिलाते हैं.......माथे पर टीके की जगह red rose  और dairy milk  दी जाती है........ शिक्षक को लेकर भी कई सवाल होते रहे हैं......शिक्षक कौन है ?.....हर गली में हिन्दी में एक बड़ा बोर्ड लगा होता है और लिखा होता कि 200 रुपए में अंग्रेजी सीखिए’.. क्या ये शिक्षक हैं ? जो झूठ बोलने का कोरबार कर रहे हैं..... या दो महीने में पूरा कंप्यूटर सिखाने का दावा करने वाले शिक्षक हैं.........हम गुरू किसे माने ? नई नई चीजों को सिखाने वाला बॉस क्या शिक्षक है ?...या चलना और संस्कार सिखाने वाले मां-बाप शिक्षक हैं... या धर्म का पालन करने वालों के लिए भगवान गुरू है जो धर्म का रास्ता दिखाते हैं......सबके अपने अपने गुरू होते है मानने वाले तो राखी सांवत और राहुल महाजन  को भी गुरू मानते हैं..अरे ये तो कुछ भी नहीं ठग नटरवलाल और लव गुरू मटुकनाथ को भी गुरू मानने वालों की कमी नहीं है...खैर समय के साथ शिक्षक दिवस टीजर्स डे में बदल गया है....वैसे मेरा व्यक्तिगत अनुभव कहता है कि जिस रिश्ते के आगे डे लग जाता है उसमें डंडा हो जाता है.....शायद आप मेरे मतलब को समझ रहे होंगे....जैसे दोस्ती के आगे फ्रेंडशिप डे लग गया.....पापा के आगे फादर डे लग गया......मां के लिए मदर्स डे हो गया......प्यार के लिए वेलेंटाइन डे.....और पता नहीं कौन कौन से डे हो गए हैं....और रिश्तों को डे में बदलने के कारण ही इनमे डंडा होता जा रहा है...वैसे शिक्षक दिवस इस सब डे से बहुत अलग है ये हमारा दिन है हमारे देश का दिन है और गुरू को सम्मान देने का दिन पर और ये अलग भी है बाकी दिन से....पर बाकी डे की जो एक साया इस  दिन पर पड़ गया है उसने सम्मान को मजाक में बदल दिया है...आज ही मेरे जूनियर ने मुझे चॉकलेट और फूल देकर कहा हैप्पी टीचर्स डे...मुझे कहीं भी इस जूनियर की आंखों में सम्मान नहीं दिखा...ये कारण है बाकी डे का टीचर्स डे पर पड़े साए का....खैर सीखा तो एक भिखारी से भी जा सकता है और जरूरी नहीं हम जिनका सम्मान करते हो वो हमेशा हमे कुछ सिखाते हैं...कई बार हमें पता होता है कि हम जिसे इज्जत दे रहे हैं वो मजबूरी  है.....पर क्या करें
 समय समय की बात...
कल दिन भी होगा अगर आज अंधेरी रात है....

गुरू का सम्मान हमेशा किया जाता है....गुरू ही वो कड़ी होती है जो हमे भगवान तक पहुंचे का रास्ता दिखाती है...गुरू का स्थान हमेशा सबसे बड़ा होता है....और गुरू का जो कर्ज हमारे ऊपर है उसे एक दिन क्या पूरी एक जिंदगी में भी नहीं उतारा जा सकता..
पर सम्मान को दिनों और शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता...सम्मान आंखों में झलकता है...जब गुरू समाने होता है तो आंखों खुद ब खुद सम्मान में झुक जाती है...मेरे लिए शिक्षक का मतलब वो व्यक्ति जिसकी झलक मेरे कामों में दिखे..मेरे व्यव्हार और मुझमे में दिखे...और जिसके सम्मान में मैं एक दिन नहीं हमेशा तैयार रहूं

गुरू गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय
बलिहारी गुरू आपकी गोविंद दियो बताय.

रोमल भावसार