चारों तरफ हल्ला मचा है कॉमनवेल्थ गेम्स का.. उसके आयोजन के लिए चल रही तैयारियों का.. भ्रष्टाचार की बहती गंगा में हाथ धोने का... जूते से लेकर सर की टोपी तक जमकर खेल खेला गया है... खेल की आड़ में जमकर खेला जा रहा है.. छला जा रहा है देश की अस्मिता को... आरोपों में घिरे खेल के तीन खलनायकों की छुट्टी कर दी गई है.. लेकिन सालों से जमा सरगना अभी भी नायक बना हुआ है... घपला ऐसा कि कोई सोच भी ना सके... एक लाख की ट्रेड मिल का किराया 10 लाख रुपए चुका दिए...लंदन में टैक्सी का किराया 33,000 रुपए चुकाए और उड़ने वाले गुब्बारे 35 करोड़ मे खरीदे गए..जिसे देश में लाने का किराया 10 करोड़ रुपए.. बाप रे बाप....बहरहाल इस पर चर्चा बहुत हो रही है हर चैनल, अखबार इन खबरों से अटा पड़ा है... लेकिन यहां मुद्दा है 'देश की अस्मिता', 'देश का गौरव', मेरा मानना है कि ये वक्त इस लड़ाई में उलझने का नही है कि किसने, क्या और कैसे किया... बल्कि ये वक्त है खेलों के सफल आयोजन के बारे में रणनीति बनाने का... खेलों का आयोजन देश की अस्मिता और साख का सवाल है... चंद भ्रष्ट, निकम्मे और देशद्रोहियों की वजह से हम अपने देश की इज्जत के साथ खिलवाड़ नही कर सकते... फिलहाल चुंकि समय दो महीने से भी कम बचा है... सरकार, खेल एसोसिएशन, ओलंपिक एसोसिएशन और इन जैसे तमाम संगठन को रात दिन एक कर इस आयोजन को सफल बनाने के लिए जी जान से भिड़ना होगा... सरकार को चाहिए कि आरोपों में घिरे और भी अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई कर तुरंत उनकी जगह ईमानदार लोगों को बिठाएं.. मीडिया की भी जिम्मेदारी बनती है वो देश हित में खेलों से जुडी सकारात्मक चीजों को जनता के सामने लाए... खेलों के आयोजन के बाद एक-एक भ्रष्टाचारियों को नापा जाए... याद आता है 1982 का वो साल जब देश ने पहले एशियाड की मेज़बानी की थी... देश की कमान इंदिरा जी के हाथों में थी.. और आयोजन से काफी पहले से खुद उनका सीधा दखल आयोजन की तैयारियों को लेकर था... यहां दो महीने पहले ही सही लेकिन सरकार के लिए जागने का समय है... 1984 के 'अप्पू' की जंग 2010 के 'शेरा' से है... तब सीमित संसाधनों में बेहतरीन आयोजन किया गया था... देश की अर्थव्यवस्था ने रफ्तार पकड़ ली थी और एशियाई देशों के साथ साथ बाकी देशों के लिए भी भारत 'इंडिया' बन गया था... लेकिन इस बार तमाम संसाधनों के बावजूद हर छोटी-बड़ी चीजों का ठेका बाहर की कंपनी को दे दिया... देश का आयोजन, देश का खर्चा, और देश का पैसा बाहर लुटाया जा रहा है.. आज देश में क्या नही मिलता है, किसी चीज की कोई कमी नही है... भारतीयों का मैनेजमेंट इतना तगड़ा है कि लड़की की शादी भी सात दिन में निपट जाए... फिर यहां तो दो महीने का वक्त पड़ा है... अभी भी संभल जाओ.. कम से कम देश की इज्जत का तो ख्याल करो.. अगर उस frustrate नेता की बद्दुआ लग गई और आयोजन फेल हो गया तो देश की आत्मा को चोट पहुंचेगी...
कुछ करो सवाल देश की अस्मिता का है... सवाल हमारा है..
समय
कुछ अपनी...
इस ब्लॉग के ज़रिए हम तमाम पत्रकारों ने मिलकर एक ऐसा मंच तैयार करने की कोशिश की है, जो एक सोच... एक विचारधारा... एक नज़रिए का बिंब है। एक ऐसा मंच, जहां ना केवल आवाज़ मुखर होगी, बल्कि कइयों की आवाज़ भी बनेंगे हम। हम ना केवल मुद्दे तलाशेंगे, बल्कि उनकी तह तक जाकर समाधान भी खोजेंगे। आज हर कोई मशगूल है, अपनी बात कहने में... ख़ुद की चर्चा करने में। हम अपनी तो कहेंगे, आपकी भी सुनेंगे... साथ मिलकर।
यहां एक समन्वित कोशिश की गई है, सवालों को उठाने की... मुद्दों की पड़ताल करने की। इस कोशिश में साथ है तमाम पत्रकार साथी... उम्मीद है यहां होने वाला हर विमर्श बेहद ईमानदार, जवाबदेह और तथ्यपरक होगा। हम लगातार सोचते हैं, लगातार लिखते हैं और लगातार कहते हैं... सोचिए, अगर ये सब मिलकर हो तो कितना बेहतर होगा। बिल्कुल यही सोच है, 'सवाल आपका है' के सृजन के पीछे। सुबह से शाम तक हम जाने कितने चेहरों को पढ़ते हैं, कितनी तस्वीरों को गढ़ते हैं, कितने लोगों से रूबरू होते हैं ? लगता है याद नहीं आ रहा ? याद कीजिए, मुद्दों की पड़ताल कीजिए... इसलिए जुटे हैं हम यहां। आख़िर, सवाल आपका है।।
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