मैं पंछी... गगन की

मैं पंछी उन्मुक्त गगन की
मत बांधो मुझे डोर में
सारे पंख टूट जाएंगे
पिंजड़े की उस छोड़ में...
      
          दो मुझको रिश्तों का बंधन
          पर उसको यूं मत कसना
          हंसकर उसे निभाना होगा
          कसकर उसे पिरो देना...
          गांठ छुड़ाना मुश्किल होगा...
          अरमान हमारी मत खोना

मैं पंछी उन्मुक्त गगन की
बांधो मुझको डोर में
रिश्तों की डोर मुलायम होगी
जी लूंगी उस कोर में

एक घूंट प्यास

सोचेंगे अरे ये कैसा शीर्षक और शायद आप इसीलिए इसे पढ़े क्योंकि ज़िंदगी में हम उन्हीं चीजों की तरफ बढ़ते है जो कहीं न कहीं हमें तृप्त करती है.....पर ये तृप्ति की परिभाषा बड़ी कठिन है ....क्योंकि कोई भी कभी तृप्त नहीं होता ...हर बार रह जाती है बाकी " एक घूंट प्यास"......और यही अधूरी प्यास भटकाती रहती है ज़िंदगी भर औऱ हम उस तृप्ति को तलाशते रहते हैं.....हर किसी की ख्वाहिश अलग ,पसंद अलग ,चाहत अलग फिर तृप्ति की परिभाषा भी तो अलग होगी ....अब चातक को देखिये पियेगा तो स्वाति नक्षत्र का पानी अरे भई प्यास लगी तो पी लो ना  पानी दुनिया में पानी की कमी थोड़ी है.....पर यही तो बात है जिस जो चाहिए बस अपने लिए वो उसे ही तलाशेगा...वरना चांद को टकटकी लगाए चकोर यूं ही नहीं ताकता ...पानी गिरने की खुशी में मोर यूं ही नहीं नाचता .....इतनी सुंदर दुनिया में फिर इतने अपराध न होते सब सुकून से अपनी जीवन यात्रा पूरी कर चले जाते वापस उस दुनिया में जहां से आए थे पर नहीं...ये अतृप्ति कितने औऱ कैसे -कैसे काम करवाती हैं......जो कभी हमारे सोच के दायरे में नहीं था....प्रथा की प्यास अपने बच्चों की जिंदगी से बढ़ जाती है और जन्म देने वालों को तृप्ति मिलती हैं उन्हें मार कर ....जमीन की प्यास  के लिए अपनें खुद बन जाते है बेइमान औऱ अपने ही भाई का हक मार लेते हैं....और उन्हें मिलती है तृप्ति....औरतों को नीचा दिखाने की प्यास में उन्हें सरे आम नंगा कर घुमाया जाता है...जिसे देखकर मिलती है हैवानियत करने वालों को तृप्ति.....झूठे दिखावे की प्यास में इंसान चाहे औरत हो या अदमी पार कर देता है सारी सीमाएं सही गलत की....औऱ आखिर जब भटकाव की आग में जलजाती है सारी शांति तो कुछ तो लौट जाते हैं ...मन की शांति के लिए सच की दुनियां में और ज्यादातर लोगों में फिर रह जाती एक घूंट प्यास.....

जिंदगी की किताब


ब्लॉग में लिखना क्या डायरी में लिखने के समान है मैनें खुद से ही पूछा तो जवाब मिला नहीं ..क्योंकि जब बातें लोगों के सामने हों तो पर्दादारी आ ही जाती है....कोई कितना भी सच्चा हो पर अपनी कलई शायद खुद नही उघाड़ेगा....और कोई दूसरा उघाड़े तो उस पर मानहानी जरूर ठोक देगा फिर भला इस ब्लॉग में लिखने और पढ़ने का क्या औचित्य....यही सोच रही थी सोचा चलो बांट लेती हूं ये भी बात शायद मेरी तरह सोचने वालों की भी एक बिरादरी होगी जो साफगोई पसंद होंगे तो उन्हें भी लगेगा कोई हम जैसा सोचता है.... पहले मैं भी हर दिन तो नहीं पर हां किसी-किसी खास दिन फिर वो चाहे अच्छे अहसास वाले हों या फिर बेहद दुख देने वाले पल उन्हें डायरी के कोरे पन्नों पर चस्पा करके थोड़ी राहत जरूर महसूस करती थी....सालों बाद आज उन्हें पढ़कर बड़ा अच्छा लगता है कि वाकई वो अहसास उस समय के थे .....जिसे न लिखती तो आज दोबारा उन्हें कैसे महसूस कर पाती ....चलिए ये सब तो निजी बातें है ब्लॉग में इनका क्या काम....थोड़ी दुनिया की कहें.....आज मैनें हार्ट सर्जन से इंटरव्यू किया बचपन से ही खास महिलाएं मेरे आकर्षण का केंद्र रहीं....आज जब मैनें उनसे बात की तो उनकी सादगी ने वापस मुझे अपने सादे पन पर गर्वित किया ....कितनी खास पर कितनी आम...जिनकी जिंदगी में बाहरी आडंबर को कोई जगह ही नहीं पूरी तरह समर्पित अपने काम के प्रति ....महिला होके टी.वी. पर सुंदर दिखने का कोई आकर्षण नहीं....लोगों को उनकी बातों से क्या संदेश मिला कैसे लोग दिल की बीमारी के लक्षणों को जानकर अपनी ज़िंदगी को बचा सकें इस पर ही उनका ध्यान था.....जिसने मुझे बहुत दिन पहले पढ़े  शिवानी के उपन्यास की याद दिला दी ....लगा जैसे वो शिवानी के उपन्यास की जीवंत पात्र मेरे सामने बैठी है...उन्होंने कहा कोई भी काम लड़की या लड़कों का नही होता जिसमें योग्यता है वो उस काम के काबिल होता है....हर शर्त पूरी करके आगे बढ़ के यश कमाने वाली महिलाएं कितनी छोटी लग रहीं थी मुझे उनके सामने......आज उनसे मिल कर प्रोग्राम करना केवल अपनी ड्यूटी पूरा करना  नहीं था पर अपने आप को और करीब से जानना था ...उनकी बातों ने मुझे एक बार फिर अपने आप पर नाज करने का मौका दिया .....

हर पहली चाहत को सलाम.......


कल रात 2 बजे अचानक मेरी नींद खुल गई..काफी कोशिश करने के बाद भी नींद नहीं आई..पत्रकार हूं चैन तो मिलता नहीं है तो बस टीवी चालू की और रात के ढ़ाई बजे न्यूज चैनल देखने लगे...एक राष्ट्रीय न्यूज चैनल को देख ही रहा था कि अचानक एक बहुत बड़ी गलती उस चैनल ने कर दी... फिर क्या था मैं भी लगा उस चैनल को गाली देने.....मन ही मन रात को बोले लगा......ये क्या तरीका है पत्रकारिता का ....लोगों ने पत्रकारिता को मजाक बना दिया... कुछ भी करते हैं..बस मन ही मन मैं गाली बक ही रहा था कि अचानक सपनों की दुनिया में खो गया....सोचने लगा काश मेरा न्यूज चैनल होता तो मैं सबको ठिकाने लगा देता....एक एक कामचोर को खड़ा करके काम करना सिखा देता.....

सोचे सोचते ही नींद लग गई और मैं खोता चला गया सपनों की दुनिया में.....गहरी नींद में मैंने देखा मैं बड़ी गाड़ी में आ रहा हूं....गाड़ी से उतरते ही 20 लोग मुझे सलाम कर रहे हैं और में पहुंच जाता हूं अपने न्यूज चैनल में.....जी हां मेरा न्यूज चैनल.. जहां सब कुछ मेरे हिसाब से चल रहा था....इस चैनल में कोई चम्मागिरी कोई पक्षपात और कोई चापलूसी नहीं हो रही थी....यहां लोग सिर्फ काम कर रहे थे....मैं ये सपना देख ही रहा था कि अचानक नींद खुल गई और मैं सोचने लगा कि हर पहली चाहत जब तक पूरी न हो कितनी अच्छी होती है....बच्चपन के उन दिनों को मैंने याद किया जब में रिक्शे से स्कूल जाता था और मेरे कुछ दोस्त साइकिल से आते थे.....मेरी बस यही चाहत थी कि पापा एक साइकिल दिला दें और मैं रोज सपने देखता था कि मुझे साइकिल मिल गई......एक दिन ये सपना सच हो गया... दादाजी ने मुझे साइकिल दिला दी...जनाब आप यकीन मानिएगा कि जब मैं उस साइकिल पर निकलता था तो ऐसे सीना तान लेता था कि मानो मैं पहला और आखिरी लड़का हूं जिसने साइकिल खरीदी हो

...मेरी साइकिल के आगे में हवाई जाहज को भी कुछ नहीं समझता था.....हकीकत में पहली चाहत पहली ही होती है....कुछ दिनों में साइकिल से मोह भंग हो गया और अब मेरे सपनों में आने लगी बाइक......रोज रात को सपना आता था कि मुझे बाइक मिल गई है और मैं शान से उसे पूरे शहर में घुमा रहा हूं.....काफी जिद के बाद दादाजी ने मुझे उस समय सबसे सस्ती आने वाली सनी मोपेड गाड़ी दिला दी.....मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था..चाहत जो पूरी हुई थी..देखते देखते ही मैंने स्कूल पूरा कर लिया और कदम कॉलेज की तरफ बढ़ गए..इस बार चाहत थी  बाइक की सो वो भी पूरी हो गई....पापा ने राजदूत गाड़ी दिला दी मुझे....
मैं राजदूत को कॉलेज लेकर जाता था और शाम को उसे पापा खेत में ले जाते थे....चाहतों का दौर अब जारी था....चूकी मैं कॉलेज मैं था तो एक औऱ चाहत जाग उठी और ये चाहत थोड़ी अलग थी....इस बार मन हुआ कि काश मेरी भी कोई गर्लफ्रेंड होती....मैं भी फिल्मों की तरह पार्क में किसी लड़की के साथ पेड़ के गोल गोल घूमकर गाना गाता...मेरा मन डोलने लगा..हर लड़की में मुझे मेरी ड्रीम गर्ल दिखाई देने लगी...कॉलेज की एक लड़की से मेरे नैन भी लड़ गए.....मैं भी उसे दिल दे बैठा...फिर क्या था बस आगे देखा न पीछे और बोल दिया आई लव यू...उस लड़की ने भी कुछ आनाकानी की और 10 दिन के बाद एक कागज पर लिखकर जवाब दिया आई लव यू टू...दोनों की प्रेम कहानी आगे बढ़नी लगी...हम लोग एक दूसरे के प्रेम पत्र देने लगे....
छुप छुप कर कॉलेज के पार्क में मिलते भी थे...एक दिन मेरी पेट की जेब से घर वालों एक लव लेटर पकड़ लिया....फिर क्या था घर में खूब पिटाई लगी और सारा इश्क का भूत उतर गया....चाहते यही खत्म नहीं हुई..रोज मैं हमारे शहर के उपर से गुजरने वाले हवाई जाहज को देखकर कहता था कि मेरी भी एक चाहत है कि मैं हवाई जाहज में बैठू...ये मौका भी जल्दी आ गया....यकीक करिए पहली बार जब मैने हवाई यात्रा की थी तो पूरे शहर के साथ पूरे रिश्तेदारों को फोन करके बताया था कि 
मैं हवाई जाहज मैं बैठा...चाहत हुई कि एक पत्रकार बन जाऊ तो बन गया..फिर चाहत हुई कि एक बार टीवी पर दिख जाऊ तो सैकड़ों बार टीवी पर आया....चाहत हुई की उच्छे बैनर में चला जाऊ सो आ गया...और चाहत होने का सिलसिला जारी है...आज भी कई चीजों की चाहत होती है आज भी सपने आते हैं अब साइकिल और बाइक की जगह अपना न्यूज चैनल दिखाई देता है.....चाहत अब भी होती है गर्लफ्रेड़ की जगह बीबी चाहता हू....कुल मिलाकर इस पूरे लेख को लिखने का मेरा एक ही मकसद था की आप माने या न माने आप की चाहत जरूर पूरी होती है अगर आप दिल से उसे चाहते हो...और हर छोटी चाहत पूरी होने पर भी बहुत बड़ी खुशी मिलती है चाहे वो साइकिल के रुप में हो या हवाई यात्रा के रुप में







रोमल भावसार

इस सार को पढ़ो, मानो और जीत तुम्हारी होगी

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी - जल्दी करने की इच्छा होती है , सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है , और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं , उस समय ये बोध कथा , " काँच की बरनी और दो कप चाय " हमें याद आती है ।
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आए और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं ...
उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की   बडी़ बरनी ( जार ) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची ... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ?

 आवाज आई ... हां

 फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे - छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किए...धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी , समा गये , फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्या अब बरनी भर गई  है ,
छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ ...
अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया , वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई , अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे ... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा , क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ?
छात्रों ने कहा.. हाँ .. अब तो पूरी भर गई है .. सभी ने एक स्वर में कहा .. सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली ,चाय भी रेत के बीच स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई ...
प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया –
इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो ....
टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान , परिवार , बच्चे , मित्र , स्वास्थ्य और शौक हैं ,
छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी , कार , बडा़ मकान आदि हैं , और
रेत का मतलब और भी छोटी - छोटी बेकार सी बातें , मनमुटाव , झगडे़ है ..
अब यदि तुमने काँच की बरनी में  सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती , या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते , रेत जरूर आ सकती थी ...
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है ...यदि तुम छोटी - छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा ... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है । अपने   बच्चों के साथ खेलो , बगीचे में पानी डालो , सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ , घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको , मेडिकल चेक - अप करवाओ ... टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो , वही महत्वपूर्ण है ...... पहले तय करो कि क्या जरूरी है ... बाकी सब तो रेत है ..
छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे .. अचानक एक ने पूछा , सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि " चाय के दो कप " क्या हैं ? प्रोफ़ेसर मुस्कुराये , बोले .. मैं सोच   ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया ...
इसका उत्तर यह है कि , जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे , लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये ।   

अब मेरी राय:- ये सब करो अपना काम ईमानदारी से करो..क्यों कि काम करने वाला किसी से नहीं डरता..डर लगता है काम चोरों को..और एक बात और हमेशा ध्यान रखो जबभी लगे कि तुम हार रहे हो तो मेरे जैसे आंख बंद करो और बोलो यहां भी हम जीतेंगे..क्यों कि हमे हारने की आदत नहीं है.....भगवत गीता में भी लिखा है जिस इंसान के अंदर जीत की आग न हो उसे जीने को कोई हक नहीं.....आगे भी जीत हमारी ही होगी....

रोमल भावसार

कदमों के निशां बाकी हैं...


रूह टटोली तो तेरी याद के खंज़र निकले
मय मैं डूबे तो तेरे इश्क के अंदर निकले
हम तो समझे थे होगी तेरी याद की चिंगारी
दिल टटोला तो आतिश के समंदर निकले

दफ्तर के अटेंडेंस रजिस्टर में मेरे नाम से पहले निशांत बिसेन का नाम आता था, और शायद बाकी मामलों में भी वो मुझसे आगे ही थे। वो अब हमारे सहकर्मी नहीं रहे लेकिन रिश्तों की मिठास आज भी बनी हुई है। दफ्तर की सीढ़ियां उतरते हुए अटेंडेंस रजिस्टर में अचानक मेरे जस्ट पहले वाले नाम पर नजर गई तो आज भी उनका नाम मुझसे आगे था और बाकी मामलों में आज वास्तव में वो मुझसे बहुत आगे हैं। हां अब अटेंडेंस रजिस्टर में उनके दस्तखत नहीं हैं, लेकिन एक दोस्त के तौर पर हमने जिंदगी भर के करार पर दस्तखत कर लिया है, ये अलग बात है कि अटेंडेंस रजिस्टर की तरह दिल की दस्तखत को नहीं दिखा सकता। उनके साथ काम करने वाले सभी लोगों के साथ कमोबेश ऐसा ही करार है। पहले तो कुछ दिनों तक उनकी गैर मौजदूगी नहीं खली, लेकिन अब उनकी कमी का एहसास होता है।
कहा तरक्की हो गई है, तो हमने भी कहा सही है। फिर वो कहां रुकने वाले थे यहां। बस यादों को छोड़ गए हैं। उनके साथ ज्यादा वक्त बिताने वाले दोस्त आज भी 'दर्शन' और जाने कहां कहां उनके कदमों के निशां को टटोलते हैं। न्यूज रूम और स्टूडियों में आज भी उनकी आवाज गूंजती है। वो तो शुक्र है मोबाइल का जिसमें उनके एसएमएस आज भी उनकी मौजूदगी का एहसास करता है। यादों के झरोखे में तो कई कहानियां है, लेकिन ये पोस्ट कहीं लेख की तरह न हो जाए इसलिए बस इतना ही। कहते हैं दुनिया गोल है... तो चलो कहीं न कहीं मुलाकात तो होगी।

ऐसी आजादी और कहां ?



आज फिर राष्ट्र गीतों की धुन अचाकन सुबह-सुबह सुनाई दी.....लाउड स्पीकर में जोर-जोर से देशभक्ति के गाने बज रहे थे...मैंने सोचा कि किसी राजनीतिक दल की रैली होगी...हो सकता है कोई बड़ा नेता आ रहा हो जिसे सुनाने देशभक्ति के गीत बज रहे हैं... वैसे तो अधिकतर ऑल इज वेल, इलू-इलू, चुम्मा-चुम्मा या डांस पर चांस मार ले जैसे ही गाने पान की दुकाने पर सुनाई देते हैं... घर से निकला तो देखा कि रास्ते में बच्चे तैयार हो कर स्कूल जा रहे हैं सड़क किनारे 1 रुपए में देश का तिरंगा भी बिक रहा है... इतना सब देखकर समझने में देर नहीं लगी की आज 15 अगस्त है... यानि हमारी आजादी की सालगिरह.... खैर एक बात है हिन्दुस्तान जैसी आजादी कहीं नहीं है... यहां केंद्र से राज्य सरकार तक पॉलीथिन पर रोक लगाने की बातें करते हैं पर मैं आज टीवी पर देख रहा कि जब लाल किले पर प्रधानमंत्री तिरंगा झंडा फहरा रहे थे... उस समय सैकड़ों स्कूली बच्चे हाथ में पॉलीथिन से बने तिरंगे झंडे लिए हुए बैठे थे... यही हाल पूरे देश का है पॉलीथिन से बने तिरंगे झंडे आज के दिन हर बच्चे के हाथ में होते हैं,.. अरे हम आजाद हैं जो चाहें वो करें... इस देश के लोगों को खुली आजादी है वो सड़क किनारे कहीं भी मूत्रालय बना सकते हैं... और अगर किसी एक ने ऐसा कर दिया तो फिर तो लोगों की लाइन लग जाती है... और मान लो अगर वहां ये लिख दिया गया कि यहां पेशाब करना मना है... तो फिर तो जैसे लोगों को लाइसेंस मिल जाता है... उसी जगह गंदगी फैलाने का... इस देश की आजादी के कई उदहारण हैं... यहां जिस नेता को जो बोलना होता है बोलता है... राजनीति की हर मर्यादा को ताक पर रखकर सार्वजनिक बयानबाजी की जाती है... यहां तक की देश के प्रधानमंत्री को नामर्द तक कह दिया जाता है... और एक पार्टी के नेता तो बार-बार पीएम की तुलना जानवारों से करते हैं... अरे भाई हम आजाद हैं जो चाहे करें... महानगरों में बैठकर आजादी बहुत अच्छी लगती है पर छोटे शहरों में तो आजादी कुछ ज्यादा ही है... गांवों में छुटभैया नेता थाने में थानेदार को चपरासी समझता है... क्योंकि वो आजाद है... दिल्ली में भ्रष्टाचारी कॉमनवेल्थ का कबाड़ा कर देते है क्यों भी वो आजाद हैं... भोपाल गैस कांड के सालों बाद भी इसके आरोपियों को मामूली सजा मिलती है... और वो जेल भी नहीं जाते उन्हें तुरंत जमानत दे दी जाती है... और वो आजाद घूमते रहते हैं... एंडरसन अमेरिका में आजाद है और उसे भगाने वाले अर्जुन सिंह भारत में...नोएडा की आरुषि को किसने मारा CBI आज तक पतना नहीं लगा पाई... और हत्यारे आजाद हैं... रुचिका की मौत के जिम्मेदार हरियाणा के पूर्व डीजीपी भी आजाद हैं... जिन्होंने आयोध्या के नाम पर देश में दंगे करा दिए... उन सब पर सालों से केस चल रहा है... पर वो आजाद हैं... 1984 में सिखों को चुन-चुन कर मारने वाले एक पार्टी के किसी नेता को आज तक सजा नहीं हुई... ये सब भी आजाद हैं... इक्ट्रोनिक चैनल के मन में जो आता है दिखाया जाता है... खुले आम अश्लीलता परोसी जा रही है... विवेका बाबाजी की मौत... धोनी की शादी... सानिया के निकाह की खबर को नक्सली हमले में शहीद हुए जवानों से ज्यादा तबज्जो दी जा रही है... क्योंकि ये चैनल आजाद हैं... टीआरपी की लड़ाई लड़ने... हमारी आपकी मेहनत की कमाई के पैसे से चलने वाली संसद को विपक्ष नहीं चलने देता क्योंकि वो आजाद हैं... बढ़ती महंगाई... नक्सली हमले... आतंकवाद का केंद्र सरकार के पास कोई जवाब नहीं है... क्योंकि वो आजाद है... और इस देश का सच्चा नागरिक हर पल घुट-घुटकर मर रहा... न किसी से कुछ कहता और ना कुछ करता... क्योंकि समय का मारा इस देश का ये आम नागरिक भी आजाद है... आजाद देश की ऐसी जिंदगी जीने... बिना सिफारिश के नौकरी नहीं मिलती... और बिना चम्मचागिरी के तरक्की नहीं होती... साधु-संतों के सैक्स स्कैंडल बन गए... महिला हॉकी टीम की खिलाड़ियों का यौन शोषण हो गया... देश के आर्दश अब फिल्मी सितारे हो गए... पीपीली लाइव के गाने के साथ महंगाई याद आने लगी... सोने की चिड़िया कहलाने वाले इस देश से सोना तो पता नहीं कब का गायब हो गया... अब तो चिड़िया भी नहीं बची... यकीनन ऐसी आजादी और कहां....




रोमाल भावसार

सवाल देश की अस्मिता का..


चारों तरफ हल्ला मचा है कॉमनवेल्थ गेम्स का.. उसके आयोजन के लिए चल रही तैयारियों का.. भ्रष्टाचार की बहती गंगा में हाथ धोने का... जूते से लेकर सर की टोपी तक जमकर खेल खेला गया है... खेल की आड़ में जमकर खेला जा रहा है.. छला जा रहा है देश की अस्मिता को... आरोपों में घिरे खेल के तीन खलनायकों की छुट्टी कर दी गई है.. लेकिन सालों से जमा सरगना अभी भी नायक बना हुआ है... घपला ऐसा कि कोई सोच भी ना सके... एक लाख की ट्रेड मिल का किराया 10 लाख रुपए चुका दिए...लंदन में टैक्सी का किराया 33,000 रुपए चुकाए और उड़ने वाले गुब्बारे 35 करोड़ मे खरीदे गए..जिसे देश में लाने का किराया 10 करोड़ रुपए.. बाप रे बाप....बहरहाल इस पर चर्चा बहुत हो रही है हर चैनल, अखबार इन खबरों से अटा पड़ा है... लेकिन यहां मुद्दा है 'देश की अस्मिता', 'देश का गौरव', मेरा मानना है कि ये वक्त इस लड़ाई में उलझने का नही है कि किसने, क्या और कैसे किया... बल्कि ये वक्त है खेलों के सफल आयोजन के बारे में रणनीति बनाने का... खेलों का आयोजन देश की अस्मिता और साख का सवाल है... चंद भ्रष्ट, निकम्मे और देशद्रोहियों की वजह से हम अपने देश की इज्जत के साथ खिलवाड़ नही कर सकते... फिलहाल चुंकि समय दो महीने से भी कम बचा है... सरकार, खेल एसोसिएशन, ओलंपिक एसोसिएशन और इन जैसे तमाम संगठन को रात दिन एक कर इस आयोजन को सफल बनाने के लिए जी जान से भिड़ना होगा... सरकार को चाहिए कि आरोपों में घिरे और भी अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई कर तुरंत उनकी जगह ईमानदार लोगों को बिठाएं.. मीडिया की भी जिम्मेदारी बनती है वो देश हित में खेलों से जुडी सकारात्मक चीजों को जनता के सामने लाए... खेलों के आयोजन के बाद एक-एक भ्रष्टाचारियों को नापा जाए... याद आता है 1982 का वो साल जब देश ने पहले एशियाड की मेज़बानी की थी... देश की कमान इंदिरा जी के हाथों में थी.. और आयोजन से काफी पहले से खुद उनका सीधा दखल आयोजन की तैयारियों को लेकर था... यहां दो महीने पहले ही सही लेकिन सरकार के लिए जागने का समय है... 1984 के 'अप्पू' की जंग 2010 के 'शेरा' से है... तब सीमित संसाधनों में बेहतरीन आयोजन किया गया था... देश की अर्थव्यवस्था ने रफ्तार पकड़ ली थी और एशियाई देशों के साथ साथ बाकी देशों के लिए भी भारत 'इंडिया' बन गया था... लेकिन इस बार तमाम संसाधनों के बावजूद हर छोटी-बड़ी चीजों का ठेका बाहर की कंपनी को दे दिया... देश का आयोजन, देश का खर्चा, और देश का पैसा बाहर लुटाया जा रहा है.. आज देश में क्या नही मिलता है, किसी चीज की कोई कमी नही है... भारतीयों का मैनेजमेंट इतना तगड़ा है कि लड़की की शादी भी सात दिन में निपट जाए... फिर यहां तो दो महीने का वक्त पड़ा है... अभी भी संभल जाओ.. कम से कम देश की इज्जत का तो ख्याल करो.. अगर उस frustrate नेता की बद्दुआ लग गई और आयोजन फेल हो गया तो देश की आत्मा को चोट पहुंचेगी...
कुछ करो सवाल देश की अस्मिता का है... सवाल हमारा है..

त्याग ही है दोस्ती

फ्रेंडशिप डे....इस बार भी अखबार में कुछ लेख छपे कव्हर स्टोरी के रूप में..कुछ लोगों से पूछा गया आप दोस्ती को लेकर क्या सोचते हैं.....लोगों ने भी बढ़-चढ़ कर दोस्ती को परिभाषित किया....सुदामा -कृष्ण, दुर्योधन और कर्ण जैसी दोस्ती का उदाहरण भी दिया ...अखबार में लोगों की फोटो भी  जिसे देखकर लोग खुश भी हुए...औऱ कुछ लोगों ने रास्तों में फूल बांटकर लोगों को स्नेह से रहने की सलाह भी दी.....इस तरह दोस्ती का ये दिन मनाया गया...पर इससे हटकर कुछ ऐसा भी देखने को मिला जो वाकई सोचने पर मजबूर करता है कि दुनिया में अभी भी कुछ संवेदना ज़िंदा है...दोस्ती जैसे अहसास के रिश्ते में.....ZEE 24 घंटे छत्तीसगढ़ न्यूज चैनल में एक खबर देखकर ये अहसास हुआ...कि क्या ऐसा हो सकता है आज के इस जमाने में... जहां एक दोस्त दूसरे को अपने शरीर का एक हिस्सा दे दे... फिर ऐसा ही हुआ एक सहेली ने अपनी सहेली को एक किडनी दे दी...वो भी शादी-शुदा होकर जब एक महिला अपने लिए फैसले खुद नहीं ले सकती ऐसे में इतना बड़ा फैसला कई मायनों में हमें एक संदेश दे गया कि इस तरह के फैसले केवल किताबों में ही नहीं होते बल्कि ज़िंदगी की किताबों में भी दर्ज हैं.......पर इन सबसे दूर एक घटना और घटी जो हर किसी के लिए सोचने की बात है आप भी सोच सकें इसलिए इसे मै सवाल आपका है में लिख रही हूं......बच्चों में दोस्ती के जज्बे का उफान कुछ ज्यादा ही होता है...इसी के चलते फिर वो लड़के हो या लड़के-लड़की....इस दिन को मनाने की तैयारी बहुत पहले से करते हैं....मासूम संवेदना की तरह मासूम तोहफों के साथ जब वो पार्क में पहुंचे तो संस्कृति के तथाकथित रखवालों ने उन पर डंडों से तोहफा दिया....ये भी नई देखा कि इस उम्र के बच्चे और खास कर बच्चियों के साथ ये अमानवीय व्यवहार क्या भारतीय संस्कृति की रक्षा कर पायेगा ? ....लड़कियों के मुंह पर कालिख पोत कर वो कैसे कर पायेंगें हिंदू-धर्म का उद्धार......सोचिए जरा ...एक तरफ हम शांति और भाई-चारे से रहने की प्रेरणा देते हैं और दूसरी तरफ धर्म के तथाकथित पहरेदार पाश्चात्य संस्कृति से दूर रहने के लिए अपने ही लोगों के साथ ऐसा व्यवहार............कितना सही है ?..........सवाल संस्कृति का है ....सवाल सुरक्षा है.... सवाल आपका और हमारा है....ये सवाल हर उस इंसान का है  जो प्रेम से रहना चाहता है.....