चोट से बने जख्म से कहीं मुश्किल है बातों से बने जख्म की पीड़ा को बर्दाश्त करना

दोस्तों माफ कीजिएगा.....मैं कोई लेख नहीं लिख रहा हूं, ये महंगाई के मुद्दे पर प्रज्ञा जी की सोंच पर मेरे भाव हैं। कमेंट के लिए शब्द सीमा तय है..इसलिए मुझे लेख के जरिए अपना कमेंट पोस्ट करना पड़ रहा है।

प्रज्ञा जी...महंगाई को लेकर आपकी सकारात्मक सोच की मैं कद्र करता हूं...शायद आप उन गिने-चुने लोगों में से एक हैं...जिन्हें ये महंगाई न रुला रही हो....खैर, महंगाई मुझे रुलाए न रुलाए, आपके लेख की कुछ पंक्तियां मुझे जरूर रुला रही हैं..चलिए, पहले पंक्ति की बात करते हैं...आपने लिखा है ''लेकिन भला हो इस महंगाई का जिसने पुरुष को धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया है''।.... मैं विनम्रता पूर्वक आपसे ये जानना चाहूंगा..कि क्या पुरुष पहले धरातल पर नहीं हुआ करते थे...अगर वो नहीं होते..तो क्या वो अब तक परिवार की अगुवाई कर पाते...सारी जिम्मेदारियों का निर्वहन कर पाते..जैसा मुझे लगता है..(या यूं कहें कि समाज के एक बड़े तबके को लगता है)..कि किसी को टीम लीड करने की जिम्मेदारी तभी दी जाती है, जब उसमें लीडरशिप क्वालिटी होती है..और शायद पुरुष वर्ग में ये क्वालिटी थी..इसीलिए शुरू से ही उसे ये जिम्मेदारी दी गई।




चलिए, दूसरी पंक्ति पर आते हैं....आपने लिखा है, ''अब तो बाकायदा लड़के कामकाजी लड़कियों की डिमांड कर रहे हैं...अब जब कामकाजी लड़कियों की डिमांड होगी तो दहेज तो अपने आप ही कम हो जाएगा... क्योंकि लड़के के परिवारवोलों को लगता है कि ये तो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी है... हर महीने तनख्वाह लाएगी''....प्रज्ञा जी, ये कहना कि.. अब तो लड़के बकायदा कामकाजी लड़कियों की डिमांड करने लगे हैं...एक शोध का विषय है। क्या सच में युवाओं का एक बड़ा तबका कामकाजी लड़कियां तलाश रहा है? इस विषय पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले आप एक मंझा हुआ शोध जरूर कर लें..क्योंकि जहां तक मेरा अनुभव है...लड़के पढ़ी-लिखी लड़कियां जरूर चाह रहे हैं...लेकिन कामकाजी लड़कियां उनकी पहली पसंद हो, ये जरूरी नहीं। अगर 'ब्यॉज फ्रैंड सर्किल' की बात करें, तो शायद मेरी सर्किल आपसे कहीं ज्यादा बड़ी है..और मुझे उनकी मानसिकता, पसंद-नापसंद और प्रेफरेंस के बारे में ज्यादा पता है।...



चलिए, तीसरी पंक्ति की बात करें...ये कुछ इस कदर है....'वे यूं ही अत्याचार नहीं सह रहीं... बल्कि उनमें अब परिस्थितियों से लड़ने का साहस भी आ गया है'.....मेरी आपसे विनती है कि 'अत्याचार' शब्द का अनावश्यक प्रयोग न करें....हो सकता है कि आपके अनुभव थोड़े कटु हो..और आपने लगातार महिलाओं पर अत्याचार होते देखा हो,..लेकिन सौभाग्य से मेरा अनुभव उल्टा रहा है....मैने शायद ही कभी पढ़े-लिखे तब्के में ऐसी ओछी मानसिकता देखी हो...हां, मैं आपकी बात को सिरे से खारिज भी नहीं करूंगा, क्योंकि अशिक्षित या यूं कहें कि सेमी एजुकेटेज सोसाइटी में कभी-कभार ऐसी चीजें देखने को जरूर मिलती हैं। अगर बात करें परिस्थितियों से लड़ने की साहस की...तो मेरी शुभकामनाएं हैं कि भगवान करे कि लड़कियां भी साहस से भरी हों...लेकिन महज पैसा आ जाने से आपकी साहस बढ़ जाए, ये जरूरी नहीं है।



मेरा आखिरी अनुरोध ये है कि महज चंद लोगों के बीच रहकर या फिर चंद किताबें और समाचार पत्रों की चटक-पटक ख़बरें पढ़कर आप कोई मानसिकता न बना लें....अनुभव लेते रहें...और उम्र और समय आने पर ही ऐसी कोई टिप्पणी दें..क्योंकि आप इंटरनेट पर लिख रही हैं..जिसे दुनिया के हर कोने में पढ़ा जा रहा है।

आपका

सितांशु शेखर

2 टिप्पणियाँ:

Crazy Codes ने कहा…

sitanshu ji aakhir aap bhi aa hi gaye humari duniya mein... swagat hai aapka... umda lekh hai aapka... dhajjiyaan uda di aapne to...

बेनामी ने कहा…

बहस जारी है...

एक टिप्पणी भेजें