जब छम-छम बजती हैं बूंदें....
अच्छी लगती हैं...
अच्छी लगती हैं...
जब सूने आंगन को भरती हैं बूंदें...
अच्छी लगती हैं...
जब कुदरत का श्रृंगार करें...
हर डाली को हार करें...
अच्छी लगती हैं...
लेकिन...
जब बाधा बन वार करें...
भंवर बन शिकार करें...
जीवन को रोके...
आगे बढ़ने से टोके...
नहीं भाती हैं...
आंस जाती हैं...
रास नहीं आती हैं...
बारिश की बूंदे....
अच्छी लगती हैं...
अच्छी लगती हैं...
जब सूने आंगन को भरती हैं बूंदें...
अच्छी लगती हैं...
जब कुदरत का श्रृंगार करें...
हर डाली को हार करें...
अच्छी लगती हैं...
लेकिन...
जब बाधा बन वार करें...
भंवर बन शिकार करें...
जीवन को रोके...
आगे बढ़ने से टोके...
नहीं भाती हैं...
आंस जाती हैं...
रास नहीं आती हैं...
बारिश की बूंदे....
2 टिप्पणियाँ:
बारिश की बूंदें मन के पन्नों को भी पलट देती हैं... याद कीजिए जरा वो कागज की नाव... मां का बार बार रोकना और जिद पर अड़कर भींगना... काश आज भी बारिश की बूंदें दिल को उतनी ही भाती... अब वो वक्त लौटेगा नहीं.... शायद कभी नहीं!
राजीव कुमार
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ..अति हर चीज़ की बुरी होती है ..
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