धमाके में जिंदगी

फिर धमाका हुआ,अफरा-तफरी मची
लोगों की भीड़ जुटी,हल्ला मचा
सारे टीवी स्क्रिन ब्रेकिंग प्वाइंट से भर गए
लोग देखने,सुनने के लिए बेताब होगए
थोड़ी देर में घटना स्थल की तस्वीरें आगईं
और सभी की जुबान पर हाय..हाय के शब्द तैर गए पर संवेदना कितनी थी ये तो पता नहीं ?
क्योंकि लोग एक पल ठहर कर चल पड़े आगे  ..जैसे ट्रेन के छूटते ही प्लेटफार्म छूट जाता है..एक दिन पहले ट्रेन हादसे में जाने गईं ...मलबा हटा नहीं और दूसरी जगह धमाके में ढ़ेर हो गए लोग।
हिन्दी फिल्मों की तरह ही सब खत्म होने के बाद पहुंची पुलिस
कुछ नेताओं नें घटना स्थल का दौरा करके जिम्मेदारी निभाई
और सुरक्षा पर कसीदे भी कढ़े...
और पुलिस जांच में जुटी कह कर हादसे की कहानी समाप्त...
ये है हिंदुस्तान जिसे फिरंगियों से छुड़ाने के लिए
लोगों नें अपनी जाने दी..वो जिंदा होते तो जरूर शर्माते...
अब तो देश को लूटने और बरबाद करने वालों की फौज तैयार है
इसीलिए संवेदना भी किराए की हो गई है
हर दिन हादसे होते हैं, लोग मरते हैं,
कभी नक्सलवादी, कभी आतंकवादी
कभी भ्रस्टाचार के खिलाफ अनशन में तो,
कभी लापरवाही की भेंट चढ़ रहे हैं लोग..
होना कुछ नहीं है,वही ढाक के तीन पात
लोग खुद आदि हो चुके हैं जंगलराज के
उन्हें मालूम है ये भारत है यहां
ना न्याय मिलना है ना सजा,
क्योंकि गरीब लोग ही मरते हैं
जब तक कसाब जैसे लोग देश में पलेंगें
तो उनके जन्मदिन में धमाके के केक कटेंगे ही
न्याय तो तब मिलेगा जब कोई
कोई कद्दावर आहत होगा ...
उसकी भी गारंटी नहीं है...
सजा मिलेगी या जेल में पलेगा ?

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