बूंदें....बारिश की...

सूखे मन पर जब पड़ती हैं...बूंदे
अच्छी लगती हैं...
जब छम-छम बजती हैं बूंदें....
अच्छी लगती हैं...

जब हाथेलियों पर सजती हैं बूंदें
अच्छी लगती हैं...
जब सूने आंगन को भरती हैं बूंदें...
अच्छी लगती हैं...
जब कुदरत का श्रृंगार करें...
हर डाली को हार करें...
अच्छी लगती हैं...
लेकिन...
जब बाधा बन वार करें...
भंवर बन शिकार करें...
जीवन को रोके...
आगे बढ़ने से टोके...
नहीं भाती हैं...
आंस जाती हैं...
रास नहीं आती हैं...
बारिश की बूंदे....

छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया...फेर...?

छत्तीसगढ़ी बोली ल राजभाषा के दरजा मिले तीन बछर ले जादा के समय बीते जात हे, फेर इहां के रहइया मन छत्तीसगढ़ी बोले म समाथें। लोगन के मन म ये धारना बइठ गे हे के छत्तीसगढ़ी बोले ले वो गवइहां हो जाही। अऊ कुछ अइसनहे समझ हे इहां के लोगन के। छत्तीसगढ़ी बोली बोले वाला के संग म गलत बेवहार करे जाथे। फेर एक बात मे ह आप मन के आगु म रखत हवं। ये बात म थोड़कुन गौर करिहव, तीन बछर पहिली मे ह देस के एक अइसे राज्य म गए अऊ तीन बछर ऊहां रहेव जौन राज्य के निरमान भाषा के आधार म सबले आगु होए रहिस मोर कहे के मतलब हे आंध्रप्रदेस जिंहा तेलगू बोले जाथे अऊ इहां के रहवइया मन ल न तो कोनो तरह के सरम आए न ही कोनो तरत के झिझक। इहां त  हिन्दी अऊ अंग्रेजी बोले वाला मन ल छोटे नजर ले देखे जाथे। ये ह देस के एक्केच राज्य नो हए जिंहा ये तरीका के हालत हे। बंगाल, असम, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, ओड़ीसा अऊ कई अऊ राज्य हे जिहां के लोगन मन उहां के बोली या भाखा ल बोले म नइ सरमावय। फेर छत्तीसगढ़िया काहे सरमाथे छत्तीसगढ़ी बोले म ये ह सोचे के बिसय हे। ये बोली ह आम जन भाखा कब बनही, ये घलो सोचे के बिसय हे। सरकार ल घलो सोचना पड़ही। राजभाषा भर के दरजा देहे ले सरकार के काम ह खतम नइ हो जावए। सरकार ल एकर प्रचार-प्रसार बर पूरा जोर लगाना पड़ही। मंच ले भाषन देत "छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया" कहे ले काम नइ बनय। छत्तीसगढ़ी ल जन-जन के भाषा बनाए बर पूरा जोर लगाए ल पड़ही।  संग म इहां के लोगन ल सरम अऊ झिझक घलो ल छोड़े ल पड़ही। तब जाके छत्तीसगढ़ी ह आम जन के भाषा बन पाही। नइ तो राज ठाकरे जइसे कोनो छत्तीसढ़िया ल रुप धरे ल पड़ही जेकर ले छत्तीसगढ़ के कल्यान होही। मे ये जानत हंव के सरकार ह छत्तीसगढ़ी बोली ल बढ़ावा दे बर छत्तीसगढ़ी के किस्सा कहिना ल पाठ्य पुस्तक म जोड़े हे। संग म रेलवे इस्टेसन घलो म अब छत्तीसगढ़ी ले एनाउंस होय ल सुरू कर दे हे। अऊ त अऊ इहां के कुछ राजनीतिक पार्टी के दबाव म मोबाइल कंपनी मन घलो छत्तीसगढ़ी म गोठियाय ल धर ले हें। फेर येमा कई गलती घलो हे। जौन ल सुधारे बर मिल जुलके काम करे ल पड़ही।  हम सब ल जुर मिल के ये बोली ल जन जन के बोली बनाए बर काम करे ल पड़ही। मोर हर छत्तीसगढ़िया ले निवेदन हे के वो छत्तीसगढ़ी बोली के प्रचार प्रसार म जोर दे। जय छत्तीसगढ़, जय-जय छत्तीसगढ़

लंबे वक्त के बाद देखी एक अच्छी फिल्म


भविष्य संवारने की जद्दोजहद या फिर बीते कल की परछांई से बोझल जिंदगी जीने वाले युवाओं को..तीन किरदारों के ज़रिए खुल कर जीने का अंदाज़ सिखाती ये फिल्म युवाओं को बेहद भाएगी क्योंकिं अंदाज़-ए-बयां काफी रोमांचक और नयापन लिए है..फिल्म देखते वक्त बस एक बात खटकती है कि आम इंसान के, एक मिडिल क्लास व्यक्ति के डर आसमान से कूदने,समुद्र की गहराई नापने या बुल-फाइट से कुछ अलग होते हैं...उसके मन की गहराईयों में छिपे छोटे-छोटे से डर मसलन,ऐसा करूंगा तो किसी को बुरा तो ना लग जाएगा, असफल हुआ तो क्या होगा,ऐसा किया तो ज़माना क्या सोचेगा...वगैरह-वगैरह ये तुच्छ से लगने वाले भय भी जीने का अंदाज़ बिसरा देने के लिए काफी होते हैं...ऐसे भय को पर्दे पर उतारने के लिए..जिन तीन इच्छाओं..डर...या ज़रियों को चुना गया है..वो पर्दे पर तो रोमांचक और नयनाभिराम लगते हैं..लेकिन साथ ही डायरेक्टर की कमर्शियल सिनेमा को हिट या प्लॉप करने की मजबूरी भी नज़र आते हैं...और इसीलिए ये फिल्म केवल युवाओं के मानस को छूती..उन्हीं की बात पहुंचाती नज़र आती है...वरिष्ठों से दूरियां बनाती लगती है...जबकि ये सच तो हर उम्र..हर वर्ग और हर किसी के लिए है कि..ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा...कल किसने देखा..सो जो आज है उसे जी लो...खुल के जिओ...हर पल को जीओ..दिल की सुनो...

क्या वाकई हम बदल रहे हैं...?


जाने कितनी बार..जाने किस-किस से और ना जाने कितने ही तरीकों से...कहा होगा हमने..कि हम बदल रहे हैं...समाज बदल रहा है...सोच बदल रही है...बर्ताव बदल रहा है...पर ना जाने क्यूं मुझे लगता है कि...अक्सर ऐसा बोलते वक्त हम शायद ये लिखना..बताना..या जताना भूल जाते हैं कि जिस बदलाव या परिवर्तन की बात आप और हम कर रहे हैं वो केवल और केवल ज़मीन पर फैलते कॉन्क्रीट के जंगल या तन पर बदलते कपड़ों के बारे में है...दरअसल,मन से तो हम वैसे ही हैं...बल्कि सच तो ये है कि हम बदलना ही नहीं चाहते...नहीं बदलता चाहते हमारी सदियों पुरानी सोच को...नहीं बढ़ाना चाहते अपनी कल्पनाशीलता का दायरा...नहीं चाहते कि कोई भी तब्दीली हो..हमारी अपनी छोटी सी सोची-समझी-सिमटी दुनिया में...बल्कि हम तो परिवर्तन को भी अपनी छोटी सी सोच के मुताबिक ही परिभाषित करते हैं...गर ऐसा ना होता आप...मैं...हम सब पड़ोसी के घऱ में क्रांन्तीकारी के पैदा होने का इंतज़ार ना करते...गर ऐसा ना होता तो आज भी रवायतों की आड़ में चाहे-अनचाहे...कुरीतियों को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे ना बढ़ाते...गर ऐसा ना होता तो आज भी...दिखावे के लिए जीवन भर की पूंजी ना लगाते...पहली बार में आप तपाक से कह सकते हैं कि मैं तो ऐसा नहीं हूं...क्योंकि ये झूठ बोलने की आदत तो हमे बचपन से ही है...क्या कहा नहीं है....एकत बार फिर सोचिए...बस एक बार तो सोचिए...

धमाके में जिंदगी

फिर धमाका हुआ,अफरा-तफरी मची
लोगों की भीड़ जुटी,हल्ला मचा
सारे टीवी स्क्रिन ब्रेकिंग प्वाइंट से भर गए
लोग देखने,सुनने के लिए बेताब होगए
थोड़ी देर में घटना स्थल की तस्वीरें आगईं
और सभी की जुबान पर हाय..हाय के शब्द तैर गए पर संवेदना कितनी थी ये तो पता नहीं ?
क्योंकि लोग एक पल ठहर कर चल पड़े आगे  ..जैसे ट्रेन के छूटते ही प्लेटफार्म छूट जाता है..एक दिन पहले ट्रेन हादसे में जाने गईं ...मलबा हटा नहीं और दूसरी जगह धमाके में ढ़ेर हो गए लोग।
हिन्दी फिल्मों की तरह ही सब खत्म होने के बाद पहुंची पुलिस
कुछ नेताओं नें घटना स्थल का दौरा करके जिम्मेदारी निभाई
और सुरक्षा पर कसीदे भी कढ़े...
और पुलिस जांच में जुटी कह कर हादसे की कहानी समाप्त...
ये है हिंदुस्तान जिसे फिरंगियों से छुड़ाने के लिए
लोगों नें अपनी जाने दी..वो जिंदा होते तो जरूर शर्माते...
अब तो देश को लूटने और बरबाद करने वालों की फौज तैयार है
इसीलिए संवेदना भी किराए की हो गई है
हर दिन हादसे होते हैं, लोग मरते हैं,
कभी नक्सलवादी, कभी आतंकवादी
कभी भ्रस्टाचार के खिलाफ अनशन में तो,
कभी लापरवाही की भेंट चढ़ रहे हैं लोग..
होना कुछ नहीं है,वही ढाक के तीन पात
लोग खुद आदि हो चुके हैं जंगलराज के
उन्हें मालूम है ये भारत है यहां
ना न्याय मिलना है ना सजा,
क्योंकि गरीब लोग ही मरते हैं
जब तक कसाब जैसे लोग देश में पलेंगें
तो उनके जन्मदिन में धमाके के केक कटेंगे ही
न्याय तो तब मिलेगा जब कोई
कोई कद्दावर आहत होगा ...
उसकी भी गारंटी नहीं है...
सजा मिलेगी या जेल में पलेगा ?

' हिन्दुस्तान'


राहुल गांधी की फिसल गई है ज़बान
क्या यही है मेरा खौफज़दा हिन्दुस्तान
नहीं रुकेंगे देस पर ये आतंकी हमले
कांग्रेस के महासचिव का आया है बयान ।

मुंबई ब्लास्ट ने फिर हरे कर दिए हैं ज़्ख्म
कैसे कोई करे आतंकियों की पहचान
कैसे कोई रोके हर दिन होते इन हमलों को
हर शख्स को हमले दे रहें है गहरे निशान ।

अब तो खत्म हो ये खूनी होली
हर नागरिक का है यही अरमान
मज़हब के आड़ में हो रहे हैं झगड़े
कैसे पहुंचाया जाए सौहार्द का पैगाम.....

ये कैसा प्यार ?

कुछ बातों पर यकीन करना चाहूं तो भी नहीं कर पाती...कुछ लोगों के बदलाव को देखूं तो भी यकीन नहीं
होता...सोचती हूं क्या वाकई दुनिया बदल गई...क्या रिश्तों के मायने अब नया रूप अख्तियार कर चुके हैं
...अब तक बॉलीवुड और टीवी सीरियल में इस तरह की स्टोरी देखकर लगता था कि क्या ऐसा दुनिया में होता
होगा...फिर सोचा ग्लैमरस लाइफ के लिए ये बात मायने नहीं रखती लोग कपड़ों की तरह रिश्ते बदलते है...और टीवी सीरियल में तो लोगों के मनोरंजन या टीआरपी के चक्कर में काल्पनिक तौर पर बनाया जाता होगा ...पर अब तो अपने आस-पास के लोगों को देखकर लगता है कि वाकई फिल्म वालों को भी स्टोरी हमारे बीच के लोग ही देतें हैं...आज 'प्यार' शब्द पर ही बात कर लें क्योंकि सारे रिश्ते और शब्दों पर बात करें तो उलझ सी जायेंगी...'प्यार' ये शब्द सुनते ही मन एक सुंदर सी भावना के आसपास घूमने लगता है...जिसमें त्याग, समर्पण, ईमानदारी जैसे भावों का समावेश हुआ करता था...प्यार का नाम सुनते ही याद आते थे वो कुछ लोग जो जाति-धर्म,ऊंच-नीच,अमीरी-गरीबी से परे एक दूसरे की परवाह के लिए अपनी जान तक दे चुके हैं...शायद सब जानते हैं हीर-रांझा,शीरी-फरहाद,लैला-मजनू को...पर आज के प्रेमी शायद इनकों बेवकूफ कहें तो चौंकियेगा मत...क्योंकि अब तो लोग प्यार को जीत-हार और जिंदगी के लिए सुख बटोरने का माध्यम बना
चुके हैं,हीर ना मिली तो क्या दुनिया में हीर की कमी है ,रांझा न मिला तो क्या.. अरे उससे अच्छा रांझा भी आस-पास ही मिल जाएगा...रही बात कसमे-वादे की जो साथ निभाने के लिए हर प्रेमी एक दूसरे से करते हैं..साथ में सारी हदे फिर वो चाहे मन की हो या तन की पार करने के बाद भी उसे सामान्य करार देकर आगे निकल पड़ते हैं... जैसे वो किसी नाटक के संवाद से ज्यादा कुछ भी नहीं था..जो एक नाटक खत्म होने के साथ ही खत्म हो जाता है....और जिंदगी में नए प्रेमी-प्रेमिका के बदलते ही बदल जाता हैं...इतना तो फिर भी ठीक है साहब पर आज तो एक साथ कई लोगों से प्यार निभाते देखा जाता है और फिर जो बेहतर मिलता है अपनी जरूरतों के हिसाब से उसे बड़े नाटकीय अंदाज में जीवन साथी भी चुन लिय़ा जाता है...तमाम पाकिजगी और आंखों में शर्मों हया की दुहाई के साथ...और ना तो प्रेमी को फर्क पड़ता है धोखा देने का ना ही प्रेमिका को फर्क पड़ता नए के साथ हो लेने का...क्या कहिएगा इसे बॉलीबुड की फिल्मी स्टोरी..जी नहीं ये हकीकत है आज के समय की.. जिसकी झलक अब छोटे-बड़े शहरों में आसानी से देखी जा सकती है...आज के समय में रिश्तों की गरिमा,गंभीरता,ईमानदारी,संघर्ष की बात करिए तो जो युवा आपके पास होंगे वो जरूर आपको पुराने जमाने का कह कर आपको आउटडेटेड कहने से नहीं चूकेंगे...और आपको खुद शर्म आएगी अपनी सादगी और ईमानदारी पर....और मुश्किल तो यही है कि सुख की परिभाषा भी इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती देख पाएंगे आप..मेरी सोच में तो ये प्यार नहीं.. आप क्या सोचते हैं ? इस बारे में.....ये बदलाव कहां ले जाएगा दुनिया को....रिश्तों कों...या अब यही पहचान होगी रिश्तों की जिससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा...झूठ ,फरेब,चापलूसी.धोखा,जीत हार का गणित,भ्रस्ट आचरण,छल-कपट ही शायद इस युग की पहचान मानी जायेगी..क्योंकि हर युग की अपनी विशेषता होती है ,लोगों के जीवन मूल्य,नैतिक मूल्य होते हैं..तो यही समझें कि वाकई कलयुग नें अपना असर
दिखाना शुरू कर दिया है....