क्या आम जनता इतनी असंवेदनशील हो सकती है कि उसके लिए जान देने वालों के लिए कुछ घंटों का वक्त भी नहीं निकाल सके। सिर्फ अपने परिवार और परेशानियों में डूबा रहे। उसके दर्द और मजबूरियों से तड़पकर कोई बेनाम उसके लिए लडना शुरू करे और इसमें अपनी जान गंवा दें तो उसके लिए एक बूंद आंसू भी ना निकाल सके। क्या उसे अपने मददगार को भी पहचान पाने की गुरबत नही। अगर ऐसा है तो शायद बहुत भयानक है। उसे अहसास भी नहीं है कि समाज के दरिंदे उसकी बोटी बोटी नोच खाएंगे और वह बस जिंदा मांस बनकर इंसानी भेडियों के पेट में चले जाएगी।
मेरी तकलीफ महाराष्ट के उस अधिकारी जैसों की मौत की है, जिसने तेल माफियाओं से लडकर अपनी जान दे दी। मेरी तकलीफ बिहार के उस अधिकारी के लिए भी है, जो सड़क की गुणवक्तता ठीक कराते कराते ठेकेदारों की हैवानियत का शिकार हो गया। मेरी तकलीफ उस आरटीआई कार्यकर्ता के लिए भी है, जिसने आम आदमी के लूटेरों को बेनकाब करने की कोशिश में अपनी जान गंवा दी। आखिर इस बहरी , अंधी जनता को और कितना वक्त लगेगा जागने में। ये सब क्या अपने लिए मर गए? नौकरी और धंधा करते तो शान से आलीशान बंगले में जीते। आखिर क्यो लड़ना चाहा इन्होने। किसी को आदर्श की बात समझ में आगई थी। बुराई को सहना भी अपराध है। वह भी अपराधी होता है, जो अपराध होते देखता है। यही बात लग गई होगी और इन्होनं लडना शुरु किया था। तेल मिलावट खोरों को पकडना चाहते थे ताकि आम आदमी का हक उसे मिले। अच्छा तेल मिले। जमाखोरी पर अंकुश लगे। सड़क अच्छी बने ताकि लोगों को उसका हक मिले। माफियाऔ का चेहरा सामने आ सके।
हमारे समाज को ऐसे लोगों की बहुत जरूरत है। लंका सरीखी दुनिया में अकेले राम हैं। इनके लिए कुछ कर ना सको तो इनकी कुर्बानी को तो जाया मत होने दो। किसी एक समाज को आरक्षण चाहिए तो रेल रुक जाती है। तिरंगा फहराने के लिए लाखों लोग एक जुट हो जाते है। मंदिर मस्जिद के नाम पर तो करोडो लोग एक एक खेमे में एकजुट हो जाते है. लेकिन समाज की अच्छाई के लिए जान देने वालों के लिए एक हलचल भी नहीं। आखिर क्यो. अधिकारी, राजनेता, जज, से लेकर पुलिस, तक समाज के गरीबों को नोंचने में लगे है। अगर कोई हिम्मत करके आम जनता के लिए लडने खड़ा होता है, तो उसकी मौत पर ऐसी चुप्पी. ये कृतघ्नता है। अन्याया है, विश्वासघात है। फिर मत रिरियाना किसी के सामने। कोई मेरी आवाज क्यों नही सुनता। कोई मुझ पर होते जुल्म के लिए क्यों नहीं लड़ता। आपके लिए लड़ने वालों के लिए ऐसी निष्टुरता पालोगों तो आप भी वैसे ही स्वार्थी होंगे जैसे ये लूटने वाले लोग हैं। आज जहां देखो, ऐसे इमानदार लोगे मौत के घाट उतारे जा रहे हैं। इमानदार पुलिस, अफसर, कार्यकर्ता, पत्रकार अपनी जान से हाथ धो रहे है। छत्तीसगढ में दो पत्रकार की महीने भर में जान गई है. एक जमीन दलाल के हाथो तो एक भ्रष्ट बेलगाम अधिकारी के गुर्गों के हाथों मरा। क्या हुआ। कोई एक आवाज तक नहीं आई। आखिर क्यों. क्या पत्रकार सिर्फ नौकरी करता है। नहीं। वह नौकरी से भी ज्यादा समाज के लिए लड़ता है। अधिकारियों, दलालों, गुंडों से दुश्मनी मोल लेकर आम लोगों के लिए लड़ता है। क्या ये बाते आम जनता को समझाना होगा। क्या उसे समझ नहीं आता कि बीपीएल , स्मार्ट कार्ड, मनरेगा, इदिरागाधी आवास जैसी योजना किन अजगरों का पेट भर रही है। हर चीज के लिए घूस देते देते उसे तो ये भी समझ में आना बंद हो गया है कि अगर कुछ अछ्चे लोग ना हो तो घूस देकर भी अपना हक नहीं पा पाएगे। अगर अपने मददगारों की मौत पर उसकी खामोशी ऐसी रही तो वो दिन दूर भी नहीं,....
समय
कुछ अपनी...
इस ब्लॉग के ज़रिए हम तमाम पत्रकारों ने मिलकर एक ऐसा मंच तैयार करने की कोशिश की है, जो एक सोच... एक विचारधारा... एक नज़रिए का बिंब है। एक ऐसा मंच, जहां ना केवल आवाज़ मुखर होगी, बल्कि कइयों की आवाज़ भी बनेंगे हम। हम ना केवल मुद्दे तलाशेंगे, बल्कि उनकी तह तक जाकर समाधान भी खोजेंगे। आज हर कोई मशगूल है, अपनी बात कहने में... ख़ुद की चर्चा करने में। हम अपनी तो कहेंगे, आपकी भी सुनेंगे... साथ मिलकर।
यहां एक समन्वित कोशिश की गई है, सवालों को उठाने की... मुद्दों की पड़ताल करने की। इस कोशिश में साथ है तमाम पत्रकार साथी... उम्मीद है यहां होने वाला हर विमर्श बेहद ईमानदार, जवाबदेह और तथ्यपरक होगा। हम लगातार सोचते हैं, लगातार लिखते हैं और लगातार कहते हैं... सोचिए, अगर ये सब मिलकर हो तो कितना बेहतर होगा। बिल्कुल यही सोच है, 'सवाल आपका है' के सृजन के पीछे। सुबह से शाम तक हम जाने कितने चेहरों को पढ़ते हैं, कितनी तस्वीरों को गढ़ते हैं, कितने लोगों से रूबरू होते हैं ? लगता है याद नहीं आ रहा ? याद कीजिए, मुद्दों की पड़ताल कीजिए... इसलिए जुटे हैं हम यहां। आख़िर, सवाल आपका है।।
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1 टिप्पणियाँ:
सुन्दर और शानदार.
पंकज झा.
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