“बोल के लब आजाद हैं तेरे…”

वाकई चुप रहना बेहतर है,लेकिन ये तभी अच्छा लगता है जब आपके मुंह खोलने से किसी की इज्जत पर असर पड़े। तब नहीं जब आपके चुप रहने आपकी ही छिछालेदर हो। चुप रहना तब और घातक होता है,जब आप किसी घर या किसी देश के मुखिया हैं और आपके मुंह न खोलने से घर या देश की आन-बान-शान के दामन पर दाग के धब्बे लगाने की कोशिश हो। बड़े बुजुर्ग कह गए हैं ‘मुंह से निकला हुआ शब्द कभी वापस नहीं लौटता’ इसीलिए काफी सोच समझकर किसी भी बात को कहनी चाहिए। इस दुनिया में बहुत कम ही लोग ऐसे होंगे,जिन्हें हर क्षेत्र में महारथ हासिल हो। हर क्षेत्र के आप महारथी न हो और महारथी समझने की भूल कर बैठते हैं तो मौजूदा हालात में ठीक वैसी ही स्थिति होती है जैसी देश में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की उस वक्त होती है जब वो न चाहकर भी भाषण में शेरों-शायरी का इस्तेमाल करते हैं। शेर पढ़ने का या कहने का एक अपना अलग अंदाज है और जरा जेहन में उस वक्त को ताजा कीजिए जब संसद के बाहर या भीतर मनमोहन सिंह ने शेर का इस्तेमाल अपने बयान में किया है। उनकी बॉडी लॉग्वेज देखकर आपको पता चल गया होगा कि, उन्होंने जबरदस्ती शेर का पुट उसमें डाला है। बिना हाव भाव के किसी भी शेर को पढ़ना या कहना । उसके मूल भाव की आबरू को तार-तार करने जैसा होता है। मनमोहन सिंह एक खांटी अर्थशास्त्री हैं,पॉलटिशियन और शायर तो मैं उन्हें कतई नहीं मानता। अगर वो एक कुशल राजनेता होते,तो किसी भी कीमत पर दूसरों की ओर से तैयार किए गए शायरना भाषण या बयान को नहीं पढ़ते। मुद्दा जब कम गंभीर हो तो शेरों शायरी से काम चल सकता है,लेकिन जब बात प्राकृतिक संसाधनों के साथ छेड़छाड़ और उसकी बंदरबांट से जुड़ा हो तो देश के प्रधानमंत्री होने के नाते मनमोहन सिंह का ये कहना कि,
“हजारों जवाबों से बेहतर है मेरी खामोशी,न जाने कितनी सवालों की आबरू रख ली” मनमोहन सिंह को पिछले करीब 8-9 सालों में एक बात तो जरुर समझ में आ जाना चाहिए था कि,प्रधानमंत्री का काम होता है देश की जनता को सुशासन देना, न की धृतराष्ट्र की भांति पुत्रमोह में पड़कर गलत कामों में खामोशी से हामी भरना। ज्यादा दिन नहीं बीते हैं लाल किले की प्राचीर से मनमोहन सिंह को देश में अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई पर चिंता जताते हुए। खामोश रहकर कौन सी मनमोहनी नीति अपनाकर इस खाई को सिंह साहब पाटने की कोशिश कर रहे हैं। कोयले की कालिख से उनका सफेद लिबास दागदार हो रहा है और उन्हें फिक्र ही नहीं। दूसरे मंत्रियों की भांति उन्होंने भी संवैधानिक संस्था कैग के कामकाज पर सवाल उठा दिया। एक झटके में कह दिया कि,कैग का आकंलन कई आधारों पर गलत है। इतिहास गवाह है कि,कैग ने हमेशा से ही सरकारों को आइना दिखाने का काम किया है। तथ्यों को गलत बताने और जुबान को बंद रखने से बेहतर होगा मनमोहन सिंह के लिए कि,वो तथ्यों को गंभीरता से लेते हुए उन लोगों पर कड़ी कार्रवाई को तरजीह देते जिन्होंने धरती मां के सीने में अनगिनत सुरंग बनाकर उन्हें तो खोखला करने का काम किया ही,साथ ही साथ देश की मान-मर्यादा पर भी कालिख पोतने की कोशिश की है। मनमोहन सिंह के पास वक्त बहुत कम है। ऐसे में जाते-जाते अगर एक-दो चोर को वे अपने कर-कमलों से सजा दिला जाते तो,इसमें कोई दो राय नहीं कि,इतिहास एक कठपुतली प्रधानमंत्री के बजाए कार्रवाई करने वाले और ईमानदार प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें याद रखेगा। तो चलिए खोलिए प्रधानमंत्री जी अपनी जुबान क्योंकि, फैज अहमद फैज के अल्फाज हैं “बोल के लब आजाद हैं तेरे…”

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें