परदेस की अच्छी बातों से लें सबक

IMF यानि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख डॉमिनिक स्ट्रॉस होटल की महिला कर्मचारी से छेड़छाड़ के मामले में जेल के अंदर हो गए... साथ ही साथ अपना पद भी गंवाना पड़ा... स्ट्रॉस 2012 में फ्रांस के राष्ट्रपति पद के दावेदार भी हैं... अति उच्च पद पर बैठे व्यक्ति पर इतनी त्वरित कार्रवाई देखकर बहुत अच्छा लगा... और वहां की कानून-व्यवस्था और उसे लागू करने के जज्बे के प्रति मन में काफी सम्मान की भावना आई...
लेकिन ये सब देखकर एकबारगी अपने देश की सुस्त और लचर न्याय प्रणाली की तरफ ध्यान खुद ही खिंच गया और एक आक्रोश और गुस्से ने मन में जगह ले ली... वहां तो केवल छेड़छाड़ का आरोप था... फिर भी इतनी तत्परता दिखाई गई... उच्च पद पर आसीन उस व्यक्ति के कितने कॉन्टैक्ट्स होंगे उसका सहज अंदाजा आप लगा सकते हैं.... फिर भी जेल की हवा खानी पड़ रही है... लेकिन हमारे यहां आए दिन बलात्कार की खबरें देखने-सुनने को मिलती हैं... कहीं बाप ने बलात्कार किया... कहीं चाचा ने, कहीं पड़ोसी ने, कहीं भाई ने, कहीं जीजा ने, कहीं दोस्त ने... फिर भी सजा मिलना तो दूर अपराधी पकड़े तक नहीं जाते... गलती से पकड़ भी लिए जाएं तो भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था में उनका बचकर निकलना बहुत आसान होता है... हाई प्रोफाइल मामला तो दूर की बात है... यहां तो छुटभैये अपराधियों की भी इतनी पहुंच होती है... कि पुलिस पहले तो मामला दर्ज नहीं करती... और दबाव में जबरन मामला दर्ज करना भी पड़ गया तो कार्रवाई अत्यंत धीमी होती है... इससे भी आगे कार्रवाई हो और न्यायालय में मामला पहुंचे तो फैसला आते-आते 14-15 साल तो बीत ही जाते हैं... उस पर भी अगर फैसला आ भी गया तो आप हाईकोर्ट फिर सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगा सकते हैं... प्रियदर्शिनी मट्टू जैसे ऐसे कई केस ऐसे ही हैं... ये तो रेप की बात हुई... छेड़छाड़ तो यहां बहुत छोटी और आम बात मानी जाती है... उसे करना तो लड़के अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं... हां लड़कियों को ये समझाइश जरूर दी जाती है... कि कपड़े ऐसे पहनो... तो ऐसे मत चलो... तो ऐसे मत बोलो... etc..
ये तो रही रेप और छेड़छाड़ की बात... लेकिन हत्या, अपहरण जैसे अपराध करने वाले अपराधी भी अपने देश में खुलेआम घूमते हैं... वो भी शान से... यहां तक कि जनप्रतिनिधि तक बन जाते हैं...
हमारा देश स्त्रियों की पूजा करने का दंभ भरता है... और कहता है कि यहां जो विकृति आई है वो पश्चिमी सभ्यता की देन है... लेकिन सच तो ये है कि यहां कुछ परसेंट घरों को छोड़ दें तो कहीं भी स्त्री का सम्मान नहीं है... लोग जिस दिन दुर्गा पूजा करते हैं... उस दिन भी बीवी को गलियाते हैं... मारते-पीटते हैं... यहां तक कि दिल दुःखाने वाली बातें सुनाते हैं... एक तरफ तो पूजा का आयोजन करते हैं... दूसरी तरफ अश्लील बातें करते हैं किसी लड़की के बारे में... जिस बहू-बेटी को लक्ष्मी का रूप माना जाता है... उसे कष्ट पहुंचाने में परिवार वाले कोई कोरकसर नहीं छोड़ते... इतनी इज्जत करते हैं महिलाओं कि आज हर मां-बाप को ये सोचना पड़ रहा है कि बेटी को कहां-कहां दरिंदों से बचाते चलें... और सबसे बड़ी बात तो ये कि दरिंदा कहीं परिवार में ही न हो...
सबसे आश्चर्य की बात तो ये है कि कोल्हापुर में जिस मंदिर में मां लक्ष्मी की पूजा की जाती रही है बरसों से वहीं महिलाओं का प्रवेश कुछ दिनों पहले तक वर्जित था... क्या औरतों को मां के मंदिर में जाने से रोककर उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती थी?
ये सब कोई आज पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से हुआ हो... ऐसा बिल्कुल नहीं है... शुरू से ही हमारे देश में भ्रष्टाचार की और औरतों के प्रति अन्याय की कमी नहीं रही है... कहा जाता था कि स्त्रियों को वेद मत सुनने दो... अगर सुन ले तो उसके कान में पिघला शीशा डाल दो... जबकि सभी भगवान और देवता खुद ही देवियों की पूजा करते हैं, उनकी इज्जत करते हैं, और उन्हें दुःख नहीं पहुंचाते... फिर भी भगवान की कहानी पढ़कर भी बेवकूफ लोगों को समझ में नहीं आता... कि बिना स्त्री कृपा के जीवन में तरक्की नहीं की जा सकती... एक तरफ तो देवियों को पूजा करो... दूसरी तरफ स्त्री रुपी देवी को दुत्कारो.. पहले भी औरतें उठा ली जाती थीं... परदे में दुराचार होता था...बाल विवाह होते थे... सती प्रथा थी.. मारना-पीटना था... चाहे बेइज्जत करना था... चाहे दहेज प्रथा थी... या औरतों को बच्चा पैदा करने की मशीन के तौर पर बिहेव करने की थी... और तुलसीदास ने तो यहां तक कह दिया कि औरत तारण की अधिकारी है... जिस स्त्री के गर्भ में 9 महीने रहे... उसे भी नहीं छोड़ा...उसकी ममता को और सबसे बड़ी बात तो कि अपने वजूद को ही गाली दी... अब उस समय तो ग्लोबलाइजेशन था नहीं कि इंटरनेट के माध्यम से तुलसीदास जी ये बात पश्चिमी देशों से सीख लिए हों...
कुल मिलाकर हमारे देश में स्त्रियों के प्रति अत्याचार कोई नई बात नहीं... सबसे अफसोस की बात तो ये है कि औरतों को दबाकर रखना आज भी गौरव का विषय समझा जाता है... लेकिन उससे भी ज्यादा अफसोस तो इस बात पर है कि औरत स्वयं ही इन सबके लिए काफी हद तक जिम्मेदार है... उस पर से न उसके साथ समाज है, न परिवार और न कानून या न्याय प्रणाली...

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें