समझ में नहीं आ रहा
कि,आखिरकार हमारे राजनेता चाहते क्या हैं। कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अल्वी कहते हैं
कि,मुलायम सिंह यादव भाजपा के एजेंट हैं,और सोनिया गांधी कुर्सी बचाने के लिए
मुलायम से दोस्ती करना चाहती हैं। यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान जरा दिग्विजय सिंह
के तेवर को याद कीजिए। कैसे-कैसे बयानबाजी कर दिग्गी राजा मीडिया में हेडलाइन बन
जाते थे,और अभी जब दिग्गी ने ममता दीदी को नखरेबाज कहकर संबोधित किया तो,कांग्रेस
की ओर से फरमान जारी कर दिया गया कि, दिग्विजय सिंह अपनी जुबान को लगाम दें। बिहार
के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार में भाजपा की बदौलत सीएम की कुर्सी पर विराजमान
हैं,लेकिन उनको गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा पंसद नहीं है। जिस
नरेंद्र मोदी को गुजरात का मुखिया बनाने के लिए कभी संजय जोशी ने जी तोड़ कोशिश
की,उसी संजय जोशी के चलते मोदी को अब सीएम की कुर्सी पर खतरा मंडराते नजर आ रहा
है। मोदी को विकास पुरुष कहने वाले लाल कृष्ण आडवाणी को अब ये बात नागवार गुजर रही
है कि,नरेंद्र मोदी दिल्ली की कुर्सी पर विराजमान होने का ख्वाब क्यों संजो रहे
हैं। कहने तो सुषमा स्वराज...नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी को छोटा
भाई कहती हैं,लेकिन बड़ी बहन मुंबई कार्यकारिणी की बैठक में मोदी को दी जा रही
तवज्जों और गडकरी को दूसरी बार अध्यक्ष बनाने के लिए पार्टी संविधान में किए गए
संशोधन से इस कदर खफा हो गई कि,मायानगरी मुंबई की हलचल को छोड़ सीधे पहुंच गई
आस्था की कार्यशाला में। मोदी के बढ़ते कद को लेकर भाजपा के कुछ नेता इस कदर
परेशान हो गए कि,पार्टी के मुखपत्र “कमल संदेश” में इस बात का जिक्र करना पड़ा कि,पार्टी से
बढ़कर कोई नहीं हो सकता है। ऐसे में सवाल उठता है कि,गुटबाजी नहीं होने का ढिंढौरा
पीटने वाली भाजपा आखिकार मोदी के बढ़ते कद से खुश होने के बजाए बेचैन क्यूं नजर आ
रही है। चाल,चरित्र और चेहरा के सहारे सियासी मैदान में बाजी मारने वाली भाजपा को
आखिर हो क्या गया है? खैर ये तो राजनीति है और यहां कुछ भी हो सकता है
और सब कुछ जायज भी है। तभी तो आदिवासी राष्ट्रपति बनाने का बिगुल बजाने वाले पीए
संगमा इतने स्वार्थी हो गए कि,राष्ट्रपति चुनाव में किसी आदिवासी के नाम को बढ़ाने
के बजाए खुद आगे बढ़ गए और मीडिया के सामने हंसते
हुए कह दिए कि,वो राष्ट्रवादी के बजाए आदिवासी कहलाना पंसद करेंगे। देश की
अर्थव्यवस्था पटरी से उतर रही है,गलत नीतियों के चलते आमलोगों जीना मुहाल हो रहा
है,और नेता हैं कि,उन्हें देश की चिंता के बजाए अपने रसूख को कायम रखने की
जद्दोजहद से फुर्सत ही नहीं है। आखिर एक लकीर तो खींचनी होगी,जिससे देश का भी कुछ
भला हो। सियासत के मैदान में गोता लगाने वाले सियासतदां कभी मौका मिले तो सोचिएगा
जरूर...क्योंकि,चुनाव हर पांच साल बाद होते ही हैं...और उसके बाद क्या होगा...ये
मुझसे बेहतर आप जानते होंगे। याद रखिएगा...कुछ थप्पड़ों की गूंज तो नहीं सुनाई
देती,लेकिन उसके जख्म बहुत गहरे होते हैं।
समय
कुछ अपनी...
इस ब्लॉग के ज़रिए हम तमाम पत्रकारों ने मिलकर एक ऐसा मंच तैयार करने की कोशिश की है, जो एक सोच... एक विचारधारा... एक नज़रिए का बिंब है। एक ऐसा मंच, जहां ना केवल आवाज़ मुखर होगी, बल्कि कइयों की आवाज़ भी बनेंगे हम। हम ना केवल मुद्दे तलाशेंगे, बल्कि उनकी तह तक जाकर समाधान भी खोजेंगे। आज हर कोई मशगूल है, अपनी बात कहने में... ख़ुद की चर्चा करने में। हम अपनी तो कहेंगे, आपकी भी सुनेंगे... साथ मिलकर।
यहां एक समन्वित कोशिश की गई है, सवालों को उठाने की... मुद्दों की पड़ताल करने की। इस कोशिश में साथ है तमाम पत्रकार साथी... उम्मीद है यहां होने वाला हर विमर्श बेहद ईमानदार, जवाबदेह और तथ्यपरक होगा। हम लगातार सोचते हैं, लगातार लिखते हैं और लगातार कहते हैं... सोचिए, अगर ये सब मिलकर हो तो कितना बेहतर होगा। बिल्कुल यही सोच है, 'सवाल आपका है' के सृजन के पीछे। सुबह से शाम तक हम जाने कितने चेहरों को पढ़ते हैं, कितनी तस्वीरों को गढ़ते हैं, कितने लोगों से रूबरू होते हैं ? लगता है याद नहीं आ रहा ? याद कीजिए, मुद्दों की पड़ताल कीजिए... इसलिए जुटे हैं हम यहां। आख़िर, सवाल आपका है।।
सवालों का लेखा जोखा
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ये जीत नहीं हार है...
प्रस्तुतकर्ता
राज किशोर झा
on शनिवार, 9 जून 2012
भारतीय राजनीति के मौजूदा हालात को देख यही कहा जा सकता है कि,इस वक्त स्वार्थ की राजनीति चरम पर है। आलम ये हो गया है कि,हर राजनीतिक दल अपने नफे-नुकसान का हिसाब कर फैसले ले रहा है। सियासी पार्टियों को देश की स्थिति से कोई लेना-देना नहीं रहा। कांग्रेस को इस वक्त देश की कम और राष्ट्रपति चुनाव की ज्यादा चिंता है,तो भाजपा घर की कलह से परेशान नजर आ रही है। यूपी विधानसभा चुनाव को ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, सभी को याद होगा कि,किस तरीके से समाजवादी पार्टी पर कांग्रेस ने प्रहार किए थे,और सपा ने कैसे उसका जवाब दिया था। वक्त बीता और जैसा कि,राजनीति के बारे में कहा जाता है कि,यहां न कोई स्थायी दोस्त होता है,और न ही कोई स्थायी दुश्मन। इसी कहावत को इस वक्त कांग्रेस और सपा दोनों चरितार्थ करने में लगी है। पहले तो कांग्रेस ने राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव को यूपीए-2 के तीन साल पूरे होने पर आयोजित जश्न में शामिल किया। फिर मुलायम को ममता के विकल्प के तौर पर तैयार रहने को राजी किया। हालांकि,इसके पीछे मुलायम सिंह ने भी कांग्रेस से एक बड़ा सौदा किया। इस सौदेबाजी के तहत ये करार हुआ कि,सपा राष्ट्रपति चुनाव में कांग्रेस को सपोर्ट करेगी और कांग्रेस इसके बदले कन्नौज लोकसभा उपचुनाव में डिंपल यादव के खिलाफ चुनाव मैदान में नहीं उतरेगी। कांग्रेस और सपा की सौदेबाजी तो समझ में आती है,लेकिन भाजपा का कन्नौज के चुनावी मैदान में सरेंडर करना समझ में नहीं आया। भाजपा इस वक्त देश में मुख्य विपक्ष की भूमिका में है,और इस नाते उसे मैदान में सरेंडर करने से कई सवाल खड़े होते हैं। पहला तो ये कि,भाजपा अपने भितरघात से क्या इस कदर जख्मी हो चुकी है कि,उसे चुनाव लड़ने में भी परेशानी हो रही है। कांग्रेस कन्नौज से फाइट नहीं करने के पीछे ये तर्क दे रही है कि,जब दो हजार नौ में अखिलेश इस सीट से चुनाव लड़े थे,तब भी कांग्रेस ने प्रत्याशी नहीं उतारा था। मगर भाजपा के पास ऐसा कोई कामचलाऊ तर्क नहीं है,तो ऐसे में क्या मान लिया जाए कि,भाजपा...नरेंद्र मोदी और संजय जोशी की लड़ाई में इस कदर उलझ चुकी है कि,उसे चुनाव लड़ने की भी फुर्सत नहीं है। पिछले कुछ महीनों में भाजपा के क्रियाकलापों पर नजर डालें तो साफ जाहिर होता है कि,कमल...कीचड़ के किचकिच में बुरी तरीके से फंस गया है। जिस वक्त पेट्रोल की कीमतों में साढ़े सात रुपए की बढ़ोतरी हुई,उस वक्त भाजपा मुंबई में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में व्यस्त थी,जबकि एक सशक्त विपक्ष होने के नाते उसे उस वक्त सड़कों पर होना चाहिए था। खैर कुछ दिन बाद ही सही भाजपा ने भारत बंद का आह्वान किया। उस दिन भी उसके बड़े नेता वातानुकुलित कमरों में बैठे नजर आए। और तो और जिस दिन केंद्र ने पेट्रोल की बढ़ी कीमतों को करीब दो रुपए कम करने का ऐलान किया। उस दिन भी भाजपा उसका क्रेडिट नहीं ले पाई। इसकी वजह रही आडवाणी का ब्लॉग बम। भाजपा के तमाम बड़े नेता कीमत घटने का क्रेडिट लेने के बजाए ब्लॉग बम में झुलसते नजर आए। कांग्रेस और भाजपा की तरह बसपा ने भी कन्नौज में आत्मसमपर्ण कर दिया। माना ये जा रहा था कि,कांग्रेस और भाजपा से भले ही मुलायम की बहू को राहत मिल जाए मगर बसपा जरुर मैदान में उतरेगी। मगर लगता है विधानसभा में मिली करारी हार से बसपा अभी तक उबर नहीं पाई है। तभी तो कन्नौज में बहनजी टक्कर देने के बजाए अजगर की तरह दिल्ली में चैन की सांस लेती नजर आई। राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों की इस दुर्गति को देख तो उन दो निर्दलीय उम्मीदवारों की प्रशंसा करनी होगी,जिन्होंने कम से कम डिंपल के खिलाफ नामांकन तो किया। भले ही किसी कारण से वो दोनों भी चुनावी मैदान से हट गए। कांग्रेस की सौदेबाजी,भाजपा की आपसी खींचतान और बसपा की चुप्पी से डिपंल को सिंपल जीत तो मिल गई,लेकिन इस जीत के साथ ही राजनीति शर्मसार हो गई।
भिखारियों का गांव
प्रस्तुतकर्ता
राज किशोर झा
on गुरुवार, 7 जून 2012
इसे
विडंबना कह लीजिये या फिर हमारे सरकारों की
लापरवाही कि, आज भी एक गांव ऐसा है।जहां विकास की रोशनी की बाट वहां की जनता जोह
रही है। जहां के बच्चे स्कूल इसलिए नहीं
जाते क्योंकि अगर वे स्कूल चले गए तो रात में भूखे सोना पड़ेगा,वहां
के लोगों को आज भी प्यास बुझाने के लिए कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है।वहां के लोगों को आज भी तम्बुओं में रात
गुजारने पड़ते हैं।गांव की कहानी और बयां करें
उससे पहले उसका नाम बता देते हैं। मध्य प्रदेश के कटनी की परेवागर गांव की ये दास्तां है। इस गांव में जितने
भी परिवार हैं। सब भिखारी हैं,फकीर हैं,और
कोई इनकी खबर लेने वाला नहीं है। गांव की अनार बाई के मुताबिक, चुनाव के वक़्त नेता इनसे हर समस्या से निजात
दिलाने का वादा करते हैं। पर जीत जाने के बाद
वादा भूल जाते हैं। लेकिन तमाम तरह की असुविधाओं के बावजूद यहां के लोग खुश रहते हैं। गांव में हर जाति के लोग रहते
हैं,लेकिन उनके बीच मज़हब और अमीरी गरीबी का
भेदभाव नहीं है। सबके घर में भीख मांगने के बाद ही चूल्हा जलता है। इनकी हालत सुन हम और आप भले ही दुखी हो,पर
वहां के लोग हमेशा मुस्कुराते रहते हैं। गांव
में विकास की रोशनी नहीं पहुची
तो विकास की बात करना बेमानी है। फिर भी गांव का महबूब अपने घर में हर सुविधा रखे है। मसलन टीवी,मोबाइल,सीडी। जब भी गांव वाले एक साथ बैठते हैं। मनोरंजन का दौर
चल पड़ता है। हालांकि गांव की रंजीता कहती
है कि,जो जिंदगी वो जी रही है। वैसी जिंदगी उसके बच्चे को नसीब न हो तो अच्छा,पर
अफ़सोस की संसाधन के आभाव में गांव का हर
बच्चा भीख मांगने को मजबूर है। सोनू ने बताया कि, वो पढ़ाई करना चाहता है,लेकिन अगर वो स्कूल
जायेगा तो फिर रात को उसे
भूखे सोना पड़ेगा। यानी सब के सब हालात के आगे बेबस हैं। ज़रा याद कीजिये जब मुंबई की धरावी पर फिल्म स्लमडॉल
मिलेनियर बनी थी। उस वक़्त हमारे नेताओं ने कैसे हल्ला मचाया था कि,फिल्म में भारत की गलत तस्वीर पेश की गई है,लेकिन इस गांव के बारे में क्या
कहेंगे हमारे सफेदपोश।धरावी में रहने वालों
को बिजली तो नसीब होती है,पर यहां के लोगों को तो आज भी लालटेन युग में जीना पड़ रहा है।एक तरफ तो हम विकसित
देश होने का सपना संजो रहे हैं। वहीं दूसरी ओर इस गांव की कहानी उन सपनों को
मुंह चिढ़ा रही है। कोई बताएगा कि,विकसित
हो जाने के पहले क्या परेवागर गांव की सूरत और सिरत बदल जाएगी?
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