बात 26 जुलाई की है।
सुबह-सुबह हाथों में अखबार लिया,तो पता चला कि,आज विजय दिवस है। थोड़ी देर के लिए
उन जवानों को याद किया,फिर दफ्तर के लिए निकल पड़ा। वहां जाकर अपने बॉस को बताया
कि,आज करगिल युद्ध के तेरह साल हो गए,उनकी प्रतिक्रिया थी,अच्छा इतने साल बीत गए। मैं
समझ गया,उनकी मंशा। फिर खबरों की दुनिया में व्यस्त हो गया। अचानक लखनऊ से खबर आई
कि,किसी ने मायावती की मूर्ति को तोड़ दिया। मचाने वाली खबर थी,बाकी चैनलों की तरह
हम भी खेल रहे थे,ब्रेकिंग-फोनों के बीच शिफ्ट खत्म हो गया। रात को करीब साढ़े नौ
जब टीवी खोला तो जी न्यूज पर स्पेशल प्रोग्राम चल रहा था कि,फिल्मी हीरो याद हैं,लेकिन
देश के असली हीरो नहीं। कार्यक्रम देखने के बात अपने आप को तो मैं शर्मिंदा महसूस
कर ही रहा था, लेकिन देश के उन युवा पीढ़ी पर भी मुझे शर्मिंदगी महसूस हो रही थी, जो
कहने को तो कल के भविष्य हैं, लेकिन उन्हें अतीत के बारे में जानकारी ही नहीं।
गुस्सा आ रहा था कि,आखिर उस भविष्य से हम क्या उम्मीद करें, जिसकी अतीत की नींव
काफी कमजोर है। यकीन मानिए उस दिन अर्सा बाद मैं जी न्यूज का स्पेशल प्रोग्राम देख
रहा था,मुद्दा था कि,देश के युवाओं को करगिल या फिर उससे पहले हुए युद्ध के वीर
शहीदों के नाम याद हैं। टीवी पर जितनी भी बाइट दिखाई गई,किसी के भी मुंह से एक भी
वीर सपूत के नाम नहीं निकले। हां,उन्हें ये जरूर याद था कि,फिल्म बॉर्डर में सन्नी
देओल थे,फिल्म एलओसी करगिल में अभिषेक बच्चन थे। मुझे युवा पीढ़ी के दिमाग में सेव
इस अनर्गल चीप की मेमोरी पर ही सिर्फ गुस्सा नहीं आया बल्कि,अपने सफेदपोशों पर भी
गुस्सा आया। जी न्यूज ने जम्मू में एक ऐसे वीर शहीद की प्रतिमा की हालत दिखाई,जहां
पर विजय दिवस के दिन न तो किसी नेता ने,न ही किसी अधिकारी ने और न ही आम जनता ही
उस वीर सपूत की प्रतिमा पर पुष्प अर्पित करना मुनासिव समझा। दोस्तों शुरुआत में
मैंने जिक्र किया था,मायावती की मूर्ति का। उस दिन दोपहर बाद करीब पौने दो बजे
माया की मूर्ति तो क्षत-विक्षत किया गया,और रात के साढ़े दस बजते-बजते नई मूर्ति
लगाने की कवायद सरकार और प्रशासन ने शुरू कर दी। अब आप ही बताइए। जिस जवान ने अपनी
जान देकर देश की मर्यादा का मान रखा,उसकी प्रतिमा को साफ नहीं किया गया,उसकी
प्रतिमा पर पुष्प नहीं अर्पित किए गए तो किसी भी अधिकारी और नेता को दर्द नहीं
हुआ,लेकिन देश और राज्य को गर्त की ओर धकेलने वाली मैडम माया की मूर्ति टूटी तो हर
किसी को दर्द होने लगा,किसी ने आंदोलन की धमकी दी,तो किसी ने रातों रात मूर्ति
बनाने का आदेश जारी कर दिया। अब आप ही बताइए मेरा शर्मिंदा होना लाजिमी है कि नहीं ?
समय
कुछ अपनी...
इस ब्लॉग के ज़रिए हम तमाम पत्रकारों ने मिलकर एक ऐसा मंच तैयार करने की कोशिश की है, जो एक सोच... एक विचारधारा... एक नज़रिए का बिंब है। एक ऐसा मंच, जहां ना केवल आवाज़ मुखर होगी, बल्कि कइयों की आवाज़ भी बनेंगे हम। हम ना केवल मुद्दे तलाशेंगे, बल्कि उनकी तह तक जाकर समाधान भी खोजेंगे। आज हर कोई मशगूल है, अपनी बात कहने में... ख़ुद की चर्चा करने में। हम अपनी तो कहेंगे, आपकी भी सुनेंगे... साथ मिलकर।
यहां एक समन्वित कोशिश की गई है, सवालों को उठाने की... मुद्दों की पड़ताल करने की। इस कोशिश में साथ है तमाम पत्रकार साथी... उम्मीद है यहां होने वाला हर विमर्श बेहद ईमानदार, जवाबदेह और तथ्यपरक होगा। हम लगातार सोचते हैं, लगातार लिखते हैं और लगातार कहते हैं... सोचिए, अगर ये सब मिलकर हो तो कितना बेहतर होगा। बिल्कुल यही सोच है, 'सवाल आपका है' के सृजन के पीछे। सुबह से शाम तक हम जाने कितने चेहरों को पढ़ते हैं, कितनी तस्वीरों को गढ़ते हैं, कितने लोगों से रूबरू होते हैं ? लगता है याद नहीं आ रहा ? याद कीजिए, मुद्दों की पड़ताल कीजिए... इसलिए जुटे हैं हम यहां। आख़िर, सवाल आपका है।।
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बिन तेरे जिंदगी अधूरी है...
प्रस्तुतकर्ता
राज किशोर झा
on गुरुवार, 19 जुलाई 2012
लेबल:
फिल्म,
यादें,
राजेश खन्ना,
श्रद्धांजलि
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उसकी सांस उखड़ रही थी,मैं बेचैन हो रहा था,बॉस कह रहा था,प्रोफाइल तैयार रखो,ब्रेकिंग हेडर तैयार रखो,अब तब की स्थिति थी,उधर आनंद आखिरी सफर की तैयारी में था,और इधर मैं दो रास्ते पर खड़ा था,मेरे कानों में वो कह रहा था,मैं फिर लौटूंगा इसी अंदाज में,और दूसरा यानी बॉस कह रहा था,जिंदगी रंगमंच है। मुझे पता नहीं चला कि,उस पल कौन सच्चा था,कौन झूठा? पर सच यही था कि, सबको कभी अलविदा न कहने वाला बाबर्ची खुद सबको आनंद देकर उस जहां में चला गया,जहां से लौटना नहीं होता। सिर्फ यादें ही याद रहती है। काका शब्द तो बचपन से सुनता आ रहा हूं,पर एक अनजाना काका इतना करीबी बन जाएगा,सोचा नहीं था। अलविदा आनंद।पर जाते-जाते तुमसे इतनी ही गुजारिश है " ऐ मेरे दोस्त लौट के आ जा,बिन तेरे जिंदगी अधूरी है"।
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