सेक्स, सीडी और सच


उस वक्त मीडिया में कदम रखे मुझे एक साल ही हुए थे। गुवाहाटी में काम करने के बाद दिल्ली में रिर्पोटिंग करने का मौका मिला। खबरों की तलाश में मेरी मुलाकात एक तत्कालीन केंद्रीय मंत्री के पीए से हुई। बातों ही बातों में मुझे उन्होंने बताया कि,पीए की नौकरी में भी बहुत टेंशन है। मैंने पूछा क्यूं तो उन्होंने कहा कि,राजनीति की रणनीति के अलावा बॉस को खुश रखने के लिए और भी कुछ उल्टा-सीधा काम करना होता है। उनके कहने का जुड़ाव सेक्स से था। मुझे बड़ा अचरज हुआ पर धीरे-धीरे पता चला कि,नेताओं के सफेद कपड़ों के पीछे कितना बड़ा स्याह छिपा है।(कई नेता अभी भी स्याह से बचे हुए हैं) दरअसल ये वाक्या मुझे इसलिए याद आ गया क्योंकि, इन दिनों सियासी गलियारों में कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता और राज्यसभा सांसद अभिषेक मनु सिंघवी की एक तथाकथित सीडी यू ट्यूब और फेसबुक पर धमाल मचा रखा है। मैंन सच की तह में जाने के लिए यू ट्यूब पर उस सीडी को देखा। फिर सारा सच मेरे सामने था। सीडी देखने के बाद पहले तो बहुत गुस्सा आया कि,जिस सिंघवी को मैंने आचरण जैसे मुद्दों पर कई बार अन्ना के आंदोलन के दौरान बड़ी-बड़ी बातें करते देखा,उनका आचरण इतना गिरा हो सकता है। फिर सोचा दोष सिंघवी का नहीं है, दोष है उस परिवेश का जिसमें वो पले बढ़े हैं। सिंघवी का जन्म भले ही हिंदुस्तान में हुआ है,वो राजनीति भले ही भारत में करते हैं,लेकिन हमें ये नहीं भुलना चाहिए कि,उन्होंने पढ़ाई-लिखाई भारत में कम बल्कि उन जगहों पर ज्यादा की है,जहां दूसरी औरतों या युवतियों के साथ रातें बिताना स्टेटस सिंबल माना जाता है। खासकर युवा अवस्था में। विदेश से उच्च स्तरीय शिक्षा ग्रहण कर सिंघवी भारत की सियासी जमीन पर लैंड किए और बहुत ही कम दिनों में राजनीति में एक मुकाम हासिल कर ख्यातिप्राप्त प्रवक्ता बन बैठे। मगर इन सबके बीच अपनी बुरी लत को वो शायद छोड़ने में कामयाब नहीं हो पाए। कहते हैं कि,स्कीन डिजीज से आदमी का पीछा बड़ा ही मुश्किल से छुटता है।(यहां स्कीन डिजीज का मतलब सेक्स से है) सिंघवी ने शायद बहुत कोशिश की होगी इस बीमारी को दबाने की,लेकिन दबा नहीं पाए। इतना ही नहीं अपनी इस लत में ये भी भूल गए कि,अब पहले वाला जमाना नहीं रहा कि,रात गई बात गई। अब आलम ये है कि,रात गई लेकिन बात वीडियो के जरिए फैल जाती है। जैसा कि सिंघवी की सीडी के साथ हुआ है। कानून के जानकार और भारी-भरकम रसूख के चलते उन्होंने सीडी को दबाने की बहुत कोशिश की,लेकिन नाकाम रहे। सीडी का सच दुनिया के सामने है और सिंघवी के ओहदे का पतन भी शुरू हो चुका है। हर मुद्दे पर कांग्रेस की ओर से मीडिया के सामने वकालत करने वाले सिंघवी की अब ये स्थिति हो गई है कि,उन्हें अपनी बातों को प्रेस नोट के जरिए मीडिया के सामने रखना पड़ गया। कहावत है उपर वाला जब देता है,तो छप्पड़ फाड़ के देता है,और जब लेना शुरू करता है तो छप्पड़ उड़ाने के साथ-साथ पैरों तले जमीन भी खिसका देता है। सिंघवी के इस हालात के लिए कसूर उनकी लत का तो है ही,साथ ही साथ सियासत का एक वसूल है कि,यहां पर उगते सूरज को सलाम किया जाता है,डूबते को नहीं। जो सिंघवी लोकतंत्र की मंदिर से आचरण पर भाषण देते नजर आते थे,वो आज सेक्स,सीडी और सच की आग में झुलस रहे हैं और ये कहते नजर आ रहे हैं कि,बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।

पंडा से पंडों तक का सफर

                                
  • बचपन से ही पंडा शब्द से वास्ता पड़ता रहा है। खासकर जब भी परिजनों के साथ गंगास्नान या फिर किसी धार्मिक स्थल पर जाता था। वक्त के साथ बड़ा होता गया और ज्ञान के समंदर में गोते लगाने पर पता चला कि,पंडा यानी पंडित मतलब होता है एक विद्वान, एक अध्यापक, विशेषकर जो संस्कृत और हिंदू विधि, धर्म, संगीत या दर्शनशास्त्र में दक्ष हो। अपने मूल अर्थ में 'पण्डित' शब्द से लगभग हमेशा हिंदू, ब्राह्मण से लिया जाता है जिसने वेदों का एक मुख्य भाग उनके उच्चारण और गायन के लय-ताल सहित स्मरण कर लिया हो,लेकिन ये भ्रांति एक दिन उस वक्त टूट गया जब दफ्तर में बैठे एक सहयोगी ने कहा कि,छत्तीसगढ़ में पंडा का एक और मतलब होता है। मैंने बड़े ही चाउ से पूछा क्या होता है। तब उन्होंने बताया कि,कुछ लोग जो यूपी और बिहार से यहां पर रोजी-रोटी की तलाश में आते हैं,उनमें से कुछ लोग यहां की शराब दुकानों में नौकरी कर लेते हैं और दुकान का संचालक उन्हें पंडा की नौकरी दे देता है। इसका मुख्य काम होता है शराब की दुकानों की रखवाली करना। कह सकते हैं अंगुर की बेटी का अंगरक्षक। उनकी बातों पर यकीन नहीं हुआ। वीकली ऑफ के दिन निकल पड़ा तफ्तीश करने। रायपुर शहर के कई वाइन शॉप पर मैं पहुंचा तपती दोपहरिया में। दुकान में मौजूद कई पंडों से मेरी मुलाकात हुई। कई पंडे तो अपने गृह जिले मधुबनी के ही मिल गए। बातचीत के दौरान उनलोगों को मैंने बताया कि,क्या वो पंडा शब्द के मूल अर्थ से वाकिफ हैं। ज्यादातर ने कहा हां। यकीन मानिए उन्होंने बिलकुल वही बातें कहीं जो मैं जानता था पर इन सबके बीच उनलोगों ने कहा,साहब पेट का सवाल है। हमें तो पैसों से मतलब है। चाहे कोई मुझे पंडा या अंगरक्षक कहे। घंटों तक बात करके मैं वहां से चल पड़ा। मन में कई सवाल उठे पर ये सोच कर दिल को थाम लिया कि,जिस तरीके से तीन कोस चलने के बाद बोली बदल जाती है उसी तरह पैसों के खातिर पंडा शब्द के मायने भी बदल दिए गए हैं। पंडा शब्द की इस दुर्गति को देख मुंह से यही निकला शब्द बड़ा न उसके मायने,भैय्या सबसे बड़ा रुपया








खत...खता और खबरदार


                      
सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह का मैं बहुत ही शुक्रगुजार हूं। क्योंकि,मोबाइल और सोशल नेटवर्किंग साइट्स के इस जमाने में उन्होंने ये जता दिया कि,खत की क्या अहमियत होती है। वर्ना लोग तो खत को ही भूल गए थे। मुझे अच्छी तरह याद है जब फोन और मोबाइल का जमाना नहीं था तो कैसे किसी प्रयोजन के वक्त मेरे स्वर्गीय दादा जी मुझसे चिट्ठी लिखने को कहते थे। चिट्टी की अहमियत उस वक्त खूब थी,लोग इसे पढ़कर ही खत में लिखे बातों से खबरदार हो जाते थे। वक्त बीता और खत की जगह इन संचार माध्यमों ने ले ली। खैर वक्त ने पुराने दौर की याद दिला दी। खासकर हमारे सेनाध्यक्ष ने। एक जमाना था जब कोई लड़का किसी लड़की को या कोई लड़की किसी लड़के को प्रेम पत्र भेजता था और वो जब अभिभावक के हाथ लग जाता था तो कितना बवाल होता था। भगवान कृष्ण जब मथुरा में थे, तब भी वे अपनी प्रेयसी गोपियों को प्रेम संदेश भेजते थे, जिसे पढ़कर गोपियां इतनी खो जाती थीं कि, उनसे आंसूओं से खत के अक्षर  भी धुंधले पड़ जाते थे। उसके बाद शुरू हुआ हीर-रांझा जैसे प्रेमियों का दौर, जिन्होंने अपने प्रेम भरे खत से सभी प्रेमियों के लिए एक मिसाल कायम कर दी, लेकिन आज जो दौर है, उसमें खत का चलन खो सा गया है। इतने पर भी आज कुछ लोग ऐसे  हैं, जो अब भी खत भेजने पर ही यकीन करते हैं और इसी को बेहतर माध्यम मानते हैं अपनी बात दूसरों तक कहने का।  जनरल सिंह भी उन्हीं लोगों में से एक हैं। उन्होंने अपने अभिभावक को सेना की कमजोर स्थिति के बारे में खत लिखा मगर वो अभिभावक के हाथ लगने के बाद पड़ोसी(मीडिया) के हाथ लग गया। बस इसके बाद क्या कुछ हुआ दुनिया के सामने है। दरअसल वीके सिंह के लिखे खत की खता महज इतनी है कि,उन्होंने कागज के टुकड़े पर ऐसे शब्द लिख दिए जो लोगों को खबरदार करने के लिए काफी था। उम्मीद करता हूं कि,सिंह के रिटायरमेंट बाद आने वाले नये अधिकारी खत को खता नहीं खबरदार के तौर पर लेंगे। ताकि,देश की सैन्यशक्ति और बेहतर हो सके। अंत में एक बात और कहना चाहूंगा कि, खत की अहमियत को भूलिएगा नहीं। मुझे खत से बहुत सारी बातें याद आ गई । उम्मीद है आपको भी आएगी और आपको भी मेरी तरह कहना पड़ेगा....खत से याद आया