किसानों के दर्द से कराही राजधानी







               (फोटो साभार: दिलीप चौकसे, चंद्रेश माथुर)
                   

रोज़ की तरह ही रविवार की रात भी सर्द झोंकों और ख़ामोशी के आग़ोश में मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल सोयी हुई थी। किसी भी आहट से बेख़बर। इधर रफ़्ता-रफ़्ता रात मुकम्मल होती जा रही थी और उधर....? उधर कोई था, जो सूरज के निकलने के साथ ही ख़ुद की ताक़त का एहसास कराने की तैयारी में जुटा था। तैयारी भी ऐसी कि बस, तारीख़ उसे हमेशा-हमेशा के लिए याद रखे।
    मध्य प्रदेश का किसान अपनी बदहाली और सरकार की अनदेखी से इस क़दर आजिज़ आ चुका है, कि उसे सरकार तक अपनी आवाज़ पहुंचाने का यही एकमात्र रास्ता नज़र आया। सुनियोजित रणनीति के तहत, रात के साये में प्रदेश के किसानों ने राजधानी में ऐसी सेंध लगाई कि अगले दिन सरकार और प्रशासन पानी मांगते दिखे। प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह किसान के बेटे हैं, लिहाज़ा वे ख़ुद के किसानों के ज़्यादा क़रीब होने का दावा करते हैं। ये तो नहीं पता कि वे किसानों के कितने क़रीब हैं? लेकिन हां, सूबे का किसान जब उनसे भी किसी तरह की राहत की उम्मीद खो बैठा, तो उसने ये क़दम उठा ही लिया। सात महीने की ज़बरदस्त प्लानिंग, एक-एक किसान को भरोसे में लेने के बाद भारतीय किसान संघ की अगुवाई में हज़ारों किसानों ने सरकार की ईंट से ईंट बजा दी है। पहले तो किसानों ने प्रशासन से इस बात की इजाज़त मांगी कि लगभग दस हज़ार किसानों और 150 ट्रैक्टर-ट्रॉलियों के साथ वे राजधानी में आएंगे और सरकार तक अपनी आवाज़ पहुंचाएंगे। किसान इस तरह अपनी बातों को पहले भी शिवराज सरकार तक पहुंचाते रहे हैं। हर बार नाउम्मीदी मिलने के बाद इस बार किसानों का इरादा कुछ और करने का था।
    किसानों ने जानबूझकर प्रशासन को मुग़ालते में रखा। किसानों की जानिब से महज़ छोटे-मोटे प्रदर्शन की उम्मीद लगाए बैठे प्रशासन और सरकार के होश उस वक़्त उड़ गए, जब सोमवार की सुबह राजधानी भोपाल किसानों की मुट्ठी में थी। रात के अंधेरे में किसानों ने हज़ारों की तादाद में ट्रैक्टर और ट्रॉलियां, राजधानी में घुसा दी थीं। राजधानी के सभी मुख्य रास्तों पर उन्होंने इन ट्रैक्टर और ट्रॉलियों को अड़ा दिया। राजधानी का बाहरी संपर्क बाधित करने के लिए बाहरी हिस्से में भी ऐसा ही किया। फिर क्या था, किसान हमला कर चुके थे। जानकार कहते हैं कि भोपाल में ऐसा ट्रैफिक जाम पहले कभी नहीं लगा। शहर के कई मुख्य मार्ग अब भी बंद हैं।
    दो राय नहीं, सरकार की नाक के नीचे, उसी के क़िले में सेंध लगाकर अन्नदाता ने अपनी ताक़त का एहसास करा दिया है। सरकार और प्रशासन भले ही कह रहे हैं कि किसानों ने उन्हें धोखे में रखकर ये क़दम उठाया है, लेकिन सवाल ये है कि आख़िर किसान क्यों मजबूर हुआ?
    मध्य प्रदेश में भाजपा को सत्तासीन हुए सात बरस हो गए हैं। शिवराज सिंह पांच सालों से राज्य के मुखिया हैं। दिग्विजय सरकार के सत्ताच्युत होने के पीछे किसानों की बदहाली एक बड़ा कारण थी। किसानों को बिजली नहीं मिल रही थी, फसलों की सिंचाई के लिए पानी नहीं मिल रहा था, और भी बहुत सी समस्याएं। भाजपा सत्ता में आई तो उम्मीद थी कि हालात बदलेंगे, लेकिन नहीं। कुछ नहीं बदला। गांव अब भी अपनी दुर्दशा पर रो रहे हैं। न वहां रोशनी है, न पानी। किसानों ने इस बार 183 मुद्दों को लेकर सरकार को घेरा है। बिजली दो, पानी दो के मु्द्दे को लेकर सरकार की अनदेखी ने ही उन्हें इस हल्लाबोल के लिए उकसाया। ऐसा भी नहीं कि किसान महज एक-दो दिनों के आंदोलन के इरादे से आए हैं। उनका कहना है कि जब तक उनकी बातें नहीं मान ली जातीं, वे घर नहीं जाने वाले। इसके लिए बाक़ायदा उन्होंने अपने साथ राशन-पानी का इंतज़ाम भी किया हुआ है। किसान कहते हैं कि अगर पुलिस ने उन पर लाठी चार्ज किया तो वे भी जवाब देने के लिए मजबूर होंगे।
   इस बात में भी शक़ नहीं कि किसानों के इस क़दम से राजधानी के लोगों को ज़बरदस्त मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। पहले ही जाम ने राजधानीवासियों की हालत पतली कर दी है, अब बाहरी रास्तों पर लगे जाम के कारण सप्लाई पर असर पड़ने की आशंका है। अगर ऐसा होता है तो लोगों को सब्ज़ी, दूध और दूसरी ज़रूरतों के लिए क़िल्लत का सामना करना पड़ सकता है। लोगों को हो रही असुविधा के लिए इस पूरे आंदोलन के सूत्रधार और किसान संघ के अध्यक्ष शिव कुमार शर्मा ने माफ़ी मांगी है, लेकिन साथ ही ये भी कहा है कि देश में लाखों किसान ख़ुदकुशी कर रहे हैं, लोगों को उनका दर्द समझना चाहिए। नकली बीज और खाद ने किसानों की कमर तोड़ कर रख दी है, सरकार अब सुध नहीं लेगी तो कब लेगी?
  इस पूरे आंदोलन में एक बात जो बेहद रोचक है, वो ये है कि भारतीय किसान संघ भाजपा और संघ से ही जुड़ा संगठन है। यानी अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलकर संगठन ने सरकार की बोलती बंद कर दी है।
  किसान अब भी राजधानी में जमे हुए हैं। यहां कड़ाके की सर्द पड़ रही है। पारा पांच डिग्री के क़रीब है, लेकिन ये हाड़ कंपाने वाली ठंड भी किसानों के इरादों को कमज़ोर नहीं कर पा रही है। देखते हैं, खलिहानों से निकलकर राजधानी पर धावा बोलने वाले किसानों की मांगों को सरकार कितनी संजीदगी से लेती है??

इस जनादेश के मायने...

कुछ लिखने को जी कर रहा था, विषय नहीं मिल रहा था। अचानक एक ख़बर पर नज़र पड़ी। ख़याल आया कि इस पर लिखा जा सकता है। ख़बर यूं कि उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िले के एक गांव में एक भिखारी ने सरपंच का चुनाव जीत लिया है। ऐसा नहीं कि 60 बरस के नारायण नट उम्मीदवारों के अभाव या किसी त्रुटि की वजह से ग्राम प्रधान बने हों, बल्कि बाक़ायदा चुनावी समर में उतरकर, ग्यारह उम्मीदवारों को पटखनी देकर उन्होंने सरपंची हासिल की है।
                 सरसरे तौर पर देखा जाए तो कोई बहुत हैरत की बात नहीं है। हर नागरिक को चुनाव लड़ने का हक़ है। नारायण नट जीत गए, उन्हें बधाई। लेकिन सरसरे तौर पर ना देखा जाए, गंभीरता से सोचा जाए तो माज़रा इतना भी सरल नहीं है। नारायण के पुरखे भी भीख मांगते थे, नारायण की पत्नी और उसके बच्चे भी भीख मांगते है, नारायण भी भीख मांगते मांगते ही ज़िंदगी का सफ़र पूरा कर रहा है। यकायक क्या हुआ, जो लोगों को नारायण में नेतृत्व क्षमता नज़र आ गई। देश भर में विकास की बात हो रही है। ऐसा क्या लगा लोगों को, जो नारायण की हाथ में कमान सौंप दी गई?
                                 लोग पुराने नेतृत्व से आजिज़ आ चुके हैं। सत्ता का दुरुपयोग, पद प्रदर्शन, शक्ति प्रदर्शन, भ्रष्टाचार, दबंगई, रसूख साबित करना, अपराध, नैतिक पतन, ग़ैर ज़िमेमदाराना रवैया, राजनीतिक शुचिता का उल्लंघन सब कुछ सियासत में इस तरह रच बस गया है कि अब ना लोगों को राजनीति पर भरोसा रह गया है और ना ही राजनेताओं पर। पुराने राजनीतिज्ञ उस वट वृक्ष की तरह हैं, जो अपनी छांह में किसी को पनपने नहीं देना चाहते। दिनों दिन गंदे होते राजनीतिक परिवेश में नए लोग ख़ुद को असहज पाते हैं। अतिशयोक्ति नहीं कि बतौर करियर, राजनीति उनकी फेहरिस्त के आख़िर में भी जगह नहीं पाता होगा। जो इक्का दुक्का सियासत में आना चाहते होंगे, उन्हें ज़मीन नहीं मिल पा रही है। कुल मिलाकर नया नेतृत्व पैदा ही नहीं हो रहा है। लिहाज़ा नारायण नट जैसे लोगों को जिताकर दुनिया का सबसे वृहद् लोकतंत्र अपनी खीझ मिटाने की कोशिश कर रहा है।
     मुझे कोई बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं है कि नारायण जैसे जनप्रतिनिधि जनअपेक्षाओं पर खरे उतर पाएंगे। क्या होगी अगली स्टेज?? मतदाता तब तो उसे भी जिताने का साहस खो चुका होगा। कितना भयावह हो सकता है ये भटकाव, कल्पना कीजिए।
     इन दिनों देश में दो बातों का ख़ूब शोर हैं। पहली, विकास। दूसरी, भ्रष्टाचार। विकास की इसलिए, क्योंकि बिहार जैसे राज्य में ना केवल विकास मुद्दा बना, बल्कि सरकार की दोबारा सत्ता में वापसी हुई। भ्रष्टाचार का नाम इसलिए सबकी ज़ुबान पर है, क्योंकि आए दिन क्या कुछ हो रहा है, वो आप देख सुन रहे ही हैं। ऐसा नहीं कि लोगों को ये बातें सोचने पर मजबूर नहीं करतीं। लोगों में आक्रोश है, तीखी प्रतिक्रियाएं करते हैं वो। जब बहुत ग़ुस्सा आता है तो राजनीतिक पार्टियों को कोसते भी हैं। जब और ग़ुस्सा आता है तो कह देते हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता जब उनका ग़ुस्सा बेक़ाबू हो जाता है तो इतना तक कह देते हैं कि सब साले चोर हैं। बात ख़त्म।
    मैं सोचता हूं जब बात शुरू होने को आती है तो ही क्यों पूर्णविराम लगता है। हम इतने बड़े लोकतंत्र की अगुवाई कर रहे हैं। उम्र के शुरुआती सालों में ही जनता का, जनता के लिए, जनता को........ जैसे सबक हमारे कानों में पड़ गए थे। देश तरक्की कर रहा है, लेकिन इसकी बुनियाद यानी लोकतंत्र से लोग खिलवाड़ करते जा रहे हैं, करते जा रहे हैं, करते ही जा रहे हैं... और हम चुप हैं। इंतज़ार कर रहे हैं कि पुराने लोग चले जाएंगे, जो नए आएंगे वो भले होंगे, ईमानदार होंगे। कितने बुज़दिल हैं हम?? क्यों भ्रष्टाचार और तमाम दिल को झकझोर देने वाली बातों को सुनकर भी हमारा लहू नहीं फड़कता? सियासत और डोर थामे, इसे खेल समझ बैठे चंद लोग जो चाहते हैं, वो कर लेते हैं।
     यक़ीनन जनता बदलाव चाहती है, लेकिन उसके पास विकल्प नहीं है। लिहाज़ा कमान नारायण नट को दी जा रही है। लेकिन ये स्थाई समाधान नहीं, अच्छे लोगों को आगे आना होगा। जनता को अच्छे लोगों को पहचानना होगा, नाक़ाबिलों को नकारना होगा। ऐसा नहीं है कि देश कोई बहुत मुश्किल वक़्त से गुज़र रहा है, जहां संभावनाओं का अंत निकट है। ऐसी कई खरोचों को लोकतंत्र बिना किसी मुश्किल के आसानी से सह गया है। राजनीति में आने के लिए अच्छे लोगों को प्रोत्साहित करें।।

बेटा साइकिल चलाना सीख गया





मेरा बेटा 5 साल का है.. सभी बच्चों की तरह शरारती है चंचल है और ढेर सारे भारी भरकम सवाल भी करता है.. खैर यहां मुद्दा ज़रा जुदा है.. पिछले हफ्ते की बात है वो साइकिल चलाना सीख गया.. इसमें कोई अजूबे वाली बात नहीं है.. हर बच्चा सीखता है.. हम भी सीखे थे आप भी सीखे थे.. ताज्जूब इस बात का है कि वो बिना किसी की सहायता के साइकिल चलाना सीख गया.. मैनें भी सीखी थी लेकिन पिताजी पीछ-पीछे दौड़ा करते थे एक हाथ से साइकिल का कैरियर पकड़ कर और मुझे लगता था कि मैं तीसमार ख़ां साइकिल चला रहा हूं.. बीच में जैसे ही पिताजी हाथ छोड़ते तो थोड़ी दूर लड़खड़ाते हुए जाने के बाद अक्सर धम्म से गिर जाया करता था.. ये बीते हुए कल का गहरा फलसफा था कि बाप के सहारे के बिना एक कदम भी चल पाना कितना दुभर था और शायद यही छोटे-छोटे कारण है कि आज

भी ज़िंदगी के हर पड़ाव पर पिताजी के साथ होने का एहसास, सुरक्षित होने का सुकून देता है .. लेकिन आज कमबख्त technology ने हर रिश्तों की मिठास को फीका कर दिया है.. emotions भी प्लास्टिक के बना दिए गए हैं.. मैं यहां ये नहीं कह रहा कि आज बचपन में बच्चों को बाप के सहारे की ज़रूरत नहीं... ज़रूरत है लेकिन नए परिवेश में, नए आवरण में.. अब साइकिल चलाने की बात ही ले लिजिए.. तकनीक ने साइकिल को ऐसा modify किया कि बाप को साइकिल सीखते बच्चे के पीछे दौड़ना नहीं पड़ता... बच्चे ऐसे ही सीख जाते हैं जैसे मेरा बेटा सीख गया...मैं चाहकर भी उसके पीछे नहीं दौड़ सका.. वैसे बेटे के इतना जल्दी साइकिल सीखने की मुझे बेहद खुशी है लेकिन जिम्मेदारी और सुरक्षा का भाव लिए अपने बच्चे के पीछे उसे सहारा देने के लिए नहीं दौड़ पाने का मलाल भी है और डर भी कि कहीं इसी तरह तकनीक के जादूगरों के नए-नए इजाद जिंदगी के हर पड़ाव में बाप होने के एहसास को धुमिल ना करते जाएं और रिश्तों की अहमियत कम होती जाए.. शायद में कुछ ज्यादा ही possessive हो रहा हूं.. लेकिन हालात भी तो कुछ ऐसे ही बनते जा रहे हैं.. पहले हम खाली समय में पिताजी की गोद में बैठकर उनकी मूंछ के बालों से खेला करते थे और अपने ऊटपटांग सवालों पर भी उनसे सही जवाब की इच्छा रखते थे और यक़ीन मानिये जवाब मिलता भी था.. आज बच्चे cartoon network पर ना जाने कौन-कौन से cartoon character को अपना Maximum समय समर्पित कर देते हैं... एक अलग दुनिया बन गई है..और ये दायरा, ये फासला समय के साथ बढ़ता जाता है.. पिताजी पापा से डैड बन जाते हैं और फिर generation gap का उदाहरण भी...शायद जैसा मैनें ऊपर ज़िक्र भी किया हमें अपने आप को नए परिवेश में ढालना होगा, नए आवरण को ओढ़ना होगा.. उच्च तकनीक के साथ तेजी से भागते समय के साथ हमें भी दौड़ लगानी होगी.. ताकी 'हम' बच्चों की उंगली पकड़ कर चल सकें...