ये कैसे डॉक्टर?

 टीवी पर इस वक्त खबर चल रही है कि अंबिकापुर में एक महिला के पेट में ऑपरेशन के समय एक फीट लंबा कपड़ा छूट गया और तीन महीने के बाद उसे निकाला गया....खबर देख कर अचानक उस अंजान महिला के प्रति मन संवेदना से भर गया कितनी तकलीफ सही होगी उसने इन महीनों में...प्रसव के बाद मां बनकर मातृत्व का सुख उठाने की जगह इतने महीने उसने केवल दर्द में काट दिए...इन सब बातों से भला उस डॉक्टर को क्या लेना देना जिसने ऑपरेशन के वक्त लापरवाही की...उसे तो केवल अपने पारिश्रमिक से मतलब यानि ऑपरेशन का पूरा पैसा मिल गया...उसे तकलीफ तब होती जब उसे उसकी फीस पूरी या फिर नहीं मिलती....फिर तो उसकी पांचों इंद्रियां जागृत हो जाती...और इसके लिए वो शायद नवजात बच्चे को बंधक बना कर पैसे लाने को मरीज को मजबूर कर देता...पर यहां बात उसकी लापरवाही की है तो क्या लगता है इसके लिए उसे कैसे बंधक बनाया जाय ताकि उसकी इस लापरवाही के लिए उसे दंडित किया जा सके....यही तो मुश्किल है कि डॉक्टरों को लापरवाही की सजा नहीं मिल पाती और वो एक के बाद एक इस तरह की लापरवाही को अंजाम देते रहतें हैं....लगातार इस तरह की घटनाएं हम पढ़ते या देखते रहते हैं पर इन डॉक्टरों पर कार्यवाई की खबर एक बार भी हमें सुनने,पढ़ने को नहीं मिलती...क्या समझें इसे हम कि आम आदमी की जिंदगी इतनी सस्ती हो गई है कि कोई भी उसके साथ खिलवाड़ कर सकता है....उनकी परवाह करने के लिए ना शासन है,ना कानून,ना भगवान.....डॉक्टर को भगवान का ओहदा देने वाले लोग अब सोचने पर मजबूर हैं कि अब उन्हें क्या कहा जाए.....सोचिये  यही घटना अगर किसी ऊंचे ओहदे वालों के साथ होती तो भी क्या कार्यवाई का स्वरूप यही होता...ये घटनाएं एक साथ कई बातों पर सवालिया निशान लगाती हैं...डॉक्टरी के पेशे पर...शासन के रवैये पर और कानून की कार्यवाई पर....पर ये सवाल हल कौन करेगा ये अपने आप में एक सवाल है...?

हिन्दी हुई बेगानी

विदेशो में जानी पहचानी, और अपने ही देश में बेगानी, अंजानी,... बाहर लोग मेरे बारे में जानना चाहते हैं...लेकिन अपने ही देश में मुझे जानने वाले, सबके सामने मुझे पहचानने से हिचकते हैं...शर्माते हैं.....आप समझ ही गए होंगे की मेरा नाम हिंदी है....मैं एक बहुत ही समृद्व भाषा हूं.....किसी ज़माने में मेरा बहुत नाम था...लोग मुझे हाथो हाथ लेते थे....और मैं लोगों के जुबान पर चढ़ी इठलाती रहती थी.....वैसे तो मैं भारत वर्ष में सालों साल से हूं...लेकिन आज़ादी के बाद 14 सितंबर 1949 में मुझे राजभाषा का दर्जा दिया गया....और 14 सितंबर 1953 को औपचारिक रुप से हिंदी दिवस मनाने का भी फैसला लिया गया...हर साल मुझे आज ही के दिन आमजन तो नही हां सरकारी दफ्तरों में ज़रुर याद कर लिया जाता है... लेकिन उसके बाद फिर से मेरी दुर्दशा शुरु हो जाती है....मेरे नाम पर लाखो करोड़ो खर्च भी होते हैं...लेकिन भी मैं दिनों दिन ग़रीब होती जारही हूं....मेरी जगह मैडम इंग्लिश लोगों की जुबान पर चढ़ती जा रही है...मेरा देश अंग्रेजों से तो आज़ाद हो गया...लेकिन अंग्रेजी का गुलाम बन कर रह गया....मैं अपने देश वासियों से पूछना चाहती हूं कि क्या आपको लगता है कि आप हम वाकई आज़ाद हो गए हैं....

Filhaal bandhe hain hath.

Sabhi ko mera salaam,
Aaj Raipur chhore 1 mahina ho gaya, bahut si yaadein hain... bahut si baatein hain, jinhe shabd dene hain. Lekin kambakhat font support nahi kar raha hai, lihaza likhne se hath bandhe hai. Koshish karunga jald kuch linkhu. Aap sabhi bahut yaad aate hain.

Hamesha aapka,
NISHANT BISEN

Vacuum मतलब 'बाप की ट्रेन'

Vacuum मतलब 'बाप की ट्रेन'... सुनकर थोड़ा अजीब लग रहा है न? आप और हम इससे पहले यही जानते थे न कि Vacuum (वैक्युम) का हिंदी होता है निर्वात, जहां कुछ भी नहीं हो। निर्वात की स्थिति में गैसीय दाब, वायुमंडलीय दाब की तुलना में न के बराबर होता है। लेकिन वैक्युम का ये मतलब भी सही है, सोच में पड़ गए न!  चलिए जनाब दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालिए, सस्पेंस यहीं खत्म करता हूं और बतात हूं कि कैसे होता है वैक्युम मतलब 'बाप की ट्रेन'।
बिहार के कई हिस्सों खास कर जमुई से बख्तियारपुर और गया-जहानाबाद रूट के बच्चे से लेकर बूढे तक कमोबेश वैक्युम का यही मतलब जानते हैं। इनमें से कई लोगों ने तो स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है और ना ही अंग्रेजी का A B C ही जानते हैं... लेकिन Vacuum मतलब बखुबी समझते हैं हां ये दीगर बात है कि इसका मतलब उनके लिए थोड़ा जुदा है। इनमें से कई लोग तो काफी पढ़े लिखे भी हैं लेकिन वो भी किताबों में लिखे अर्थ को भूल गए हैं और नए अर्थ को अपना लिया है। हां उच्चारण थोड़ा अपभ्रंशित होकर वैक्युम से वैकम हो गया है। अब नहीं समझे आप...?
अजी इन लोगों के लिए ट्रेन किसी टॉय ट्रेन जैसी चिज है... जहां मन चाहे रोक लो.... गाड़ी चाहे कोई भी हो लोकल, एक्सप्रेस, मेल या सुपरफास्ट लेकिन इन रूटों पर ये चलती है बैलगाड़ी सरीखी। कोई हॉल्ट आया और ट्रेन के वैक्युम सिस्टम में छेड़छाड़ कर गाड़ी को रोक देना इनके लिए बच्चों के खेल जैसा है। ड्राइवर करे भी तो क्या... और मजाल है जो ट्रेन में सवार स्क्वॉड इनके खिलाफ कोई एक्शन ले ले! चाहे तो इनकी मनमानी सहो या फिर कभी किसी ने रोकने की हिमाकत की तो बस मत पुछो... अगले ही दिन तोड़फोड़ और न जाने कितना फसाद! पहले तो ऐसे लोग जबरदस्ती आरक्षित कोचों में घुस आते हैं फिर आपके ही बर्थ पर टांग फैलाकर कहेंगे एमएसटी हैं रोज का आनाजाना है थोड़ी देर चलेंगे...और दिन में बर्थ पर सोना कैसा....(एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी वाली कहावत तो आपने सुनी ही होगी) ऐसे ऐसे महानुभाव हर स्टेशन पर इतने आएंगे की आपका सफर यूं ही बतियाते-गपियाते कट जाएगा। इनहीं में से चंद लोग दो डब्बों को जोड़ने वाली जगहों पर बैठते हैं ताकि ट्रेन के वैक्युम पाइप से छेड़छाड़ कर ट्रेन को रोका जा सके।
इन लोगों की हरकत से उन्हें थोड़ा फायदा होता है और वे थोड़ी जल्दी घर पहुंच जाते हैं, लेकिन उनकी ऐसी हरकतों से रेलवे को तो नुकसान होता ही है साथ ही उसका खामियाजा हजारों मुसाफिरों को भी भुगतना पड़ता है। खैर उन्हें क्या उनके लिए तो एक ही आदर्श वाक्य है कि 'दुनिया जाए तेल लेने, ऐश तू कर'।

मीडिया है कमाल

‘’मीडिया...यारों चीज बड़ी है कमाल
यहां बिछा है हर तरफ
खबरों का ही मायाजाल...
संपादक रहते हैं हमेशा बेहाल

उन्हें रहता है अक्सर खबरों का ही मलाल

सुबह-शाम, उठते-बैठते हर वक्त

उन्हें आते हैं खबरों के ही सपने

जितनी भी खबरें दो उनके आगे परस

एक बार में जाते हैं वो गटक

थोड़ी देर में खबरें हो जाती है...हजम

और फिर से करते हैं...खबरों का ही महाजाप

पत्रकार करते हैं खबरों का पोस्टमार्टम

ऐंकर करते हैं पोस्टमर्टम रिपोर्ट का बेसब्री से इंतजार’’

और हर मीडिया हाउस की है ऐसी ही सरकार''

नोट: इस कविता के सभी पात्र काल्पनिक हैं...इसका किसी व्यक्ति विशेष से कोई सरोकार नहीं...ये मात्र भावों की अभिव्यक्ति है..अतः इसका गलत अर्थ न लगाएं

क्या नाम दूं?

इस जिंदगी को...
मैं क्या नाम दूं...?

कभी धूप कहूं कभी छांव कहूं
कभी सैलाबों का नाम मैं दूं

कभी शोर कहूं...कभी मौन कहूं
कभी खामोशी का जाम कहूं....



कभी गम की शाम कहूं
तो कभी इठलाती मुस्कान कहूं



कभी खुशियों का पैगाम कहूं
या जीवन का संग्राम कहूं!

मेरी आवाज़ 'इंक़लाब'


बग़ावत का झंडा बुलंद कर, आवाज़ अपनी उठा

कर अपना सर ऊंचा, एक चीख़ ऐसी लगा

हिल जाएं हुकूमत की जड़ें, आंधियां भी चल पड़ें

तू भूखा रह और भूखा ही आगे बढ़

कुछ खाया तूने तो तुझे नींद आ जाएगी

और आंखें बंद की तो आवाज़ भी खो जाएगी

जागना है तुझको, औरों को भी जगाना है

शायद इस बार इंक़लाब तुझे ही लाना है

ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद के नारे बहुत लगा लिए तूने

अब तुझे कुछ कर दिखाना होगा

ना उम्मीदी के सूरज को डुबाकर

उम्मीद की किरण को लाना होगा

तुझे चलना है उस पश्चिम की तरफ

जहां डूबी हुई उम्मीदें हैं...........

तुझे भी डूबना होगा इन्हीं उम्मीदों के लिए

एक नए कल के लिए...

सूरज फिर से निकलेगा, पंछी फिर से गाएंगे

एक नया घर, गांव, प्रदेश, एक नया देश हम बसाएंगे

वो देश जहां खुशहाली हो, हरियाली हो

वो देश जहां हर कंधे पर जिम्मेदारी हो...

आओ मिलकर फिर से एक सवेरा लाएं...

दर्द, भूख, बीमारी, गरीबी हर अंधकार को दूर भगाएं...

आओ मिलकर हम अपनी आवाज़ उठाएं...

शिक्षक दिवस से टीचर्स डे तक...डे ने किया डंडा !




शिक्षक दिवस... यानी दिनों में पिरोया हुआ गुरू को सम्मान देने का दिन......दुनिया बदल गई है....लोग बदल गए हैं.....परम्पराएं भी नई हो गई हैं..... तो शिक्षक दिवस कैसे बच सकता था....अब गुरू टीचर बन गया है........पैर छुने कि बजाए लोग हाथ मिलाते हैं.......माथे पर टीके की जगह red rose  और dairy milk  दी जाती है........ शिक्षक को लेकर भी कई सवाल होते रहे हैं......शिक्षक कौन है ?.....हर गली में हिन्दी में एक बड़ा बोर्ड लगा होता है और लिखा होता कि 200 रुपए में अंग्रेजी सीखिए’.. क्या ये शिक्षक हैं ? जो झूठ बोलने का कोरबार कर रहे हैं..... या दो महीने में पूरा कंप्यूटर सिखाने का दावा करने वाले शिक्षक हैं.........हम गुरू किसे माने ? नई नई चीजों को सिखाने वाला बॉस क्या शिक्षक है ?...या चलना और संस्कार सिखाने वाले मां-बाप शिक्षक हैं... या धर्म का पालन करने वालों के लिए भगवान गुरू है जो धर्म का रास्ता दिखाते हैं......सबके अपने अपने गुरू होते है मानने वाले तो राखी सांवत और राहुल महाजन  को भी गुरू मानते हैं..अरे ये तो कुछ भी नहीं ठग नटरवलाल और लव गुरू मटुकनाथ को भी गुरू मानने वालों की कमी नहीं है...खैर समय के साथ शिक्षक दिवस टीजर्स डे में बदल गया है....वैसे मेरा व्यक्तिगत अनुभव कहता है कि जिस रिश्ते के आगे डे लग जाता है उसमें डंडा हो जाता है.....शायद आप मेरे मतलब को समझ रहे होंगे....जैसे दोस्ती के आगे फ्रेंडशिप डे लग गया.....पापा के आगे फादर डे लग गया......मां के लिए मदर्स डे हो गया......प्यार के लिए वेलेंटाइन डे.....और पता नहीं कौन कौन से डे हो गए हैं....और रिश्तों को डे में बदलने के कारण ही इनमे डंडा होता जा रहा है...वैसे शिक्षक दिवस इस सब डे से बहुत अलग है ये हमारा दिन है हमारे देश का दिन है और गुरू को सम्मान देने का दिन पर और ये अलग भी है बाकी दिन से....पर बाकी डे की जो एक साया इस  दिन पर पड़ गया है उसने सम्मान को मजाक में बदल दिया है...आज ही मेरे जूनियर ने मुझे चॉकलेट और फूल देकर कहा हैप्पी टीचर्स डे...मुझे कहीं भी इस जूनियर की आंखों में सम्मान नहीं दिखा...ये कारण है बाकी डे का टीचर्स डे पर पड़े साए का....खैर सीखा तो एक भिखारी से भी जा सकता है और जरूरी नहीं हम जिनका सम्मान करते हो वो हमेशा हमे कुछ सिखाते हैं...कई बार हमें पता होता है कि हम जिसे इज्जत दे रहे हैं वो मजबूरी  है.....पर क्या करें
 समय समय की बात...
कल दिन भी होगा अगर आज अंधेरी रात है....

गुरू का सम्मान हमेशा किया जाता है....गुरू ही वो कड़ी होती है जो हमे भगवान तक पहुंचे का रास्ता दिखाती है...गुरू का स्थान हमेशा सबसे बड़ा होता है....और गुरू का जो कर्ज हमारे ऊपर है उसे एक दिन क्या पूरी एक जिंदगी में भी नहीं उतारा जा सकता..
पर सम्मान को दिनों और शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता...सम्मान आंखों में झलकता है...जब गुरू समाने होता है तो आंखों खुद ब खुद सम्मान में झुक जाती है...मेरे लिए शिक्षक का मतलब वो व्यक्ति जिसकी झलक मेरे कामों में दिखे..मेरे व्यव्हार और मुझमे में दिखे...और जिसके सम्मान में मैं एक दिन नहीं हमेशा तैयार रहूं

गुरू गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय
बलिहारी गुरू आपकी गोविंद दियो बताय.

रोमल भावसार

पहचान छीन लेता है...


कोई हमसे हमारी पहचान छीन लेता है
कोई पल भर में सारे एहसान छीन लेता है
हंसते हैं कम कुछ पल के लिए अगर
तो कोई पल भर में सारी मुस्तान छीन लेता है




रेत पर हम बड़े अरमानों से बनाते हैं घरौंदा
लेकिन एक तूफान हमारे सारे अरमान छीन लेता है
हमारी सदियों की मेहनत को कोई...
बस यूं ही... हंस कर कोई सरेआम छीन लेता है