ममता की ममता

 बजट चाहे आम बजट हो या रेल बजट जनता की बड़ी आस लगी रहती है कि बजट के पिटारे से क्या निकलेगा। इस साल भी 24 तारिख को ममता बनर्जी ने संसद में रेल बजट पेश किया। आम से खास लोग टीवी स्क्रीन पर टकटकी लगाए बैठे थे कि ममता अपने पिटारे से क्या खुछ खास निकालने वाली है।यकिन मानिए एक पत्रकार के नजरिए से ममता के रेल बजट का विश्लेषण करें,तो मुझे तो ये लगता है कि ममता ने पिछले साल के रेल बजट के कुछ अंश को संपादित करके हु-बहु पढ़ दिया। हालांकि फिर भी बजट में कुछ खास था,जिसे लोकलुभावन कहा जा सकता है। लोकलुभावन इस लिहाज से पिछले सात साल से रेल किराए में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गई है। खास कर यात्री किराए में। कुछ अर्थशास्त्री इस बात की चर्चा कर रहे थे,कि आर्थिक विकास की धीमी रफ्तार और वैश्विक मंदी की आड़ में ममता रेल बजट में कुछ किराए बढ़ा सकती है। लेकिन पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव की वोट की ताक और जनता की वाहवाही की आस में ममता ने किराए नहीं बढ़ाए। मनमोहन सिंह की टीम में रहते हुए ममता ने  भी अर्थशास्त्र की कुछ पाठ पढ़ ली है। और एक अर्थशास्त्री की तरह वर्तमान समय के नब्ज को टटोलते हुए PPP यानि की पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के अंतर्गत रेलवे को बिजनेस मॉडल पर जोर दिया। सीधे शब्दों में कहें, तो रेलवे में निजी निवेश बढ़ाने को तरजीह दी गई। हालांकि रेलवे में निजीकरण की बात को उन्होंने सिरे से खारिज कर दिया। रेलवे  के संसाधनों को कैसे अधिक से अधिक उपयोग किया जाए...इसके लिए भी रेल बजट में उन्होंने प्लानिंग रखीं। खासकर के रेलवे के जमीन को मानव संसाधन विकास मंत्रालय और स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ समझौते करके रेलवे के जमीन पर स्कूल और अस्पताल खोलने  की बात कहीं। सबसे जो इस बजट में मुझे अच्छा लगा वो ये कि भूतपूर्व सैनिकों को रेलवे सुरक्षा बलों में नौकरियां दी जाएगी। इसके साथ ही इस बजट में नए ट्रेन चलाने और कुछ ट्रेनों के फेरा बढ़ाने की बात भी  की गई। यूं ये तो हर बजट में ही होता है। मगर जो सबसे बड़ा सवाल है सुरक्षा का ममता  के इस बजट भाषण से गायब ही रहा । ये ठीक है कि उन्होंने रेलवे में महिला बटालियन तैनात करने की बात कही। लेकिन आज  भी पश्चिमी देशों में न के बराबर रेल दुर्घटनाएं होती  है। लेकिन भारत में दुर्घटना दर दुर्घटना....कहीं न कहीं सालों से एंटी कोलीजन डिवाइस की जो बातें चल रही है। इस साल भी रेल बजट में इसे अमली जामा पहनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। कब तक हम अपने को दुर्घटना में खोते रहेंगे......कब तक मानवीय भूल कहकर रेल मंत्रालय अपना पल्ला झाड़ता रहेगा। कब तक हम स्टेशन मास्टर और रेलले कर्मचारी को सस्पेंड कर अपना पल्ला झाड़ते रहेंगे। जरूरत है कि सबसे पहले सुरक्षा व्यवस्था को पुख्ता बनाया जाएं...ताकि हम रेलवे में सफर करें,तो सुरक्षा के लिहाज से अपने आप को निश्चिंत पाएं....'.ऐसा नहीं कि सब कुछ भगवान भरोसे'

ड्रग्स... ड्रिंक और ड्रामा

राहुल महाजन नाम तो आपने सुना होगा... भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की बिगड़ी हुई औलाद... आजकल एक टीवी प्रोग्राम में स्वंयवर रचा रहे हैं... क्या है ये राहुल महाजन... और कौन है...? ये किसी से छुपा नहीं है... एक अय्याश किस्म का रईसज़ादा... जिसने अपने पिता के पैसे पर ऐश किया है वो सब किया है जो एक बिगड़ा हुआ रईसज़ादा करता है... प्रमोद महाजन की मौत के बाद राहुल चर्चा में आया... विवादों में घिरा रहना पसंद है ड्रग्स लेने का संगीन इल्ज़ाम लगा... लेकिन इन सबके बीच कोई था जो साए की तरह साथ था... जी हां वो थी श्वेता... वही श्वेता जो कभी राहुल की दोस्त हुआ करती थी... उसके बाद पत्नी... और अब राहुल की तलाकशुदा... एक ज़िंदगी जिसे बरबाद किया राहुल महाजन ने... सबके सामने है और बाक़ी पर्दे के पीछे कितनी है कहा नहीं जा सकता... ख़ैर पर्दे पर एक ज़िंदगी बरबाद करना क्या कम था... जो बाकी की ज़िंदगियां ख़ुद ही राहुल के हाथों बरबाद होने के लिए आ गई... जी हां मैं उन्हीं लड़कियों की बात कर रहा हूं जो एक टीवी शो में राहुल से शादी करने के लिए आई हैं... आख़िर क्या पसंद आया इन्हें इस राहुल महाजन में, समझ से परे है... उसका ड्रग्स लेना... ड्रिंक करना... उसका एक हंसती खेलती ज़िंदगी को उजाड़ना... या फिर ड्रग्स और ड्रिंक लेने वाले को लेकर, छोटे पर्दे पर जो ड्रामा चलाया जा रहा है उस ड्रामे का हिस्सा बनकर सस्ती लोकप्रियता बटोरना... सवाल ये है कि प्रोड्यूसर-डायरेक्टर को राहुल महाजन कोई और अच्छा नहीं मिला या फिर सिर्फ राहुल महाजन ही मिला... ख़ैर कुछ हो ना हो टीवी चैनल को टीआरपी बटोरने का धंधा तो आता ही है... पहले राखी सावंत के स्वयंवर के नाम से सगाई कर दी... और दर्शकों को ठग्गू के लड्डू खिला दिए... अब राहुल महाजन की शादी... जो भी हो... लेकिन सच ही तो है... जो दिखता है वो बिकता है...!

ममता Vs सचिन

बजट का सीज़न है, दिन निकला.. सबको इंतज़ार था.. आज ममता बनर्जी रेल बजट पेश करने जा रही थीं। उम्मीद थी कि कुछ नया होगा। जुलाई 2009 में जब बंगाल शेरनी ने बजट पेश किया तो काफ़ी कुछ नया था, बजट में कुछ नया रहा होगा या नहीं, लेकिन जिस तरह उन्होंने पूर्ववर्ती रेल मंत्री लालू जी को कटघरे में ला खड़ा किया वो जिगरे का काम था। जी हां, उन्होंने सीधे लालू पर निशाना साधा और कहा कि रेलवे का मुनाफ़ा फ़र्ज़ी है, आंकड़ों की बाज़ीगरी है... सीधे तौर पर उन्होंने लालू के इरादों और उनकी कार्यशैली पर ही प्रहार कर दिया या यूं कहे कि लालू की बनती छवि पर पलीता लगा दिया।
    ख़ैर, बारी ममता की थी, अपनी बंगाल केंद्रित छवि से बाहर निकलना चुनौती थी। लेकिन मुमक़िन न रहा, अगर आपने बजट भाषण सुना हो तो महसूस किया होगा कि बाहरी राज्यों की घोषणाओं पर वो जमकर प्रदर्शन करती रहीं, लेकिन दबी ज़ुबान में अगला ऐलान बंगाल के नाम करने से नहीं चूकी। किसको क्या मिला, मायने नहीं रखता... क्योंकि ममता ने सबके लिए कुछ ना कुछ रखा ही था... अब भला Dependence of availability की भाषा कौन समझता है। बजट लोकलुभावन रहा, बंगाल और बिहार की तो मानो पौ बारह हो गई।
   दिन भर ममता मेल, दीदी की ट्रेन, ममता की छुकछुक, ममता से आस, माई नेम इज़ ममता जैसे प्रोग्राम टीवी पर जमकर छाए रहे, चार बजते-बजते ममता की ख़ुमारी उतरी... और छा गए सचिन। जी हां, लोग भूल ही गए कि उन्हें क्या मिला और क्या नहीं मिला। सचिन के डबल धमाके के आगोश में हर कोई ऐसा डूबा कि बजट... गया भाड़ में। टीवी चैनलों ने तो ये तक चला दिया कि 'भूलो बजट को सचिन को देखो'। बेशक़, सचिन का प्रदर्शन बेहतरीन रहा....
     लेकिन सोचिए, क्या हमारा रोमांच... हमारी ज़रूरतो, हमारे अधिकारों पर हावी हो रहा है... वो भी एक ऐसे राज्य में रहते हुए, जिसे कुछ भी नहीं मिला।।

दुलार मिलेगा या मार ?

जिस तरफ जाओ महंगाई को लेकर हाय तौबा मची हुई है और लोगों की नज़रें अब वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पर टिकी हैं जैसे कि वो कोई चमत्कार करने वाले हैं... उम्मीदें बहुत सी हैं हर बार की तरह... लेकिन एक बात तो साफ है कि आने वाला बजट लोक लुभावन शायद ही हो... क्योंकि सामने चुनाव नहीं है पिछली बार की तरह... करोड़ों लोगों की अरबों उम्मीदें... क्या वित्त मंत्री खरा उतर पाएंगे इन उम्मीदों पर...? गांव, ग़रीब, किसान, व्यापारी, बिज़नेस घराने, युवा, महिलाएं, बच्चे, बूढ़े, यानि की हर वर्ग जो सरकार की नज़रों में इसानी श्रेणी में आते हैं वो भी और जो सरकार की नज़र में इंसान नहीं हैं वो भी... सभी की उम्मीद टिकी है इस बजट पर... कैसा होगा बजट...? हर टीवी चैनल की एक हेडलाईन और आधा दिन बजट में क्या होगा ? क्या उम्मीदें है हर वर्ग की... इसी में लगा है... प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया... हर जगह एक ही चर्चा, चाय की दुकान हो या गांव की चौपाल... सब्ज़ी मंडी हो या 5 स्टार होटल, कॉलेज हो या शराब खाने, सबको इस बात की फिक्र है कि क्या तोहफ़ा मिलने वाला है।
उम्रे दराज़ मांग कर लाए थे चार दिन, दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में, रातों की नींद तक गवां रखी है सबने सिर्फ इस फिक्र में की क्या होगा प्रणब दा के पिटारे में, क्या होगा ? अजीब सवाल है, पुरानी बोतल में नई शराब परोसी जाएगी या सिर्फ ख़ाली बोतल सामने रख दी जाएगी, मंदी को पूरी तरह से ख़त्म करने के लिए कौन सा बड़ा हिम्मत वाला क़दम उठाया जाएगा...? नई नौकरियां कैसे पैदा होंगी...? पढ़े-लिखे और अनपढ़ बेरोज़गारों के लिए क्या कोई काम निकलेगा ? आम आदमी का हाथ थामकर आगे बढ़ने वाली कांग्रेस आम आदमी को इस महंगाई से अपना हाथ पकड़कर बाहर निकालेगी, मंदी का डटकर मुकाबला करने के लिए पीठ थपथपाएगी, बच्चों को प्यार से सहलाएगी या फिर एक कसकर थप्पड़ मारेगी ? क्या होगा मुझे भी इंतज़ार है...

चोट से बने जख्म से कहीं मुश्किल है बातों से बने जख्म की पीड़ा को बर्दाश्त करना

दोस्तों माफ कीजिएगा.....मैं कोई लेख नहीं लिख रहा हूं, ये महंगाई के मुद्दे पर प्रज्ञा जी की सोंच पर मेरे भाव हैं। कमेंट के लिए शब्द सीमा तय है..इसलिए मुझे लेख के जरिए अपना कमेंट पोस्ट करना पड़ रहा है।

प्रज्ञा जी...महंगाई को लेकर आपकी सकारात्मक सोच की मैं कद्र करता हूं...शायद आप उन गिने-चुने लोगों में से एक हैं...जिन्हें ये महंगाई न रुला रही हो....खैर, महंगाई मुझे रुलाए न रुलाए, आपके लेख की कुछ पंक्तियां मुझे जरूर रुला रही हैं..चलिए, पहले पंक्ति की बात करते हैं...आपने लिखा है ''लेकिन भला हो इस महंगाई का जिसने पुरुष को धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया है''।.... मैं विनम्रता पूर्वक आपसे ये जानना चाहूंगा..कि क्या पुरुष पहले धरातल पर नहीं हुआ करते थे...अगर वो नहीं होते..तो क्या वो अब तक परिवार की अगुवाई कर पाते...सारी जिम्मेदारियों का निर्वहन कर पाते..जैसा मुझे लगता है..(या यूं कहें कि समाज के एक बड़े तबके को लगता है)..कि किसी को टीम लीड करने की जिम्मेदारी तभी दी जाती है, जब उसमें लीडरशिप क्वालिटी होती है..और शायद पुरुष वर्ग में ये क्वालिटी थी..इसीलिए शुरू से ही उसे ये जिम्मेदारी दी गई।




चलिए, दूसरी पंक्ति पर आते हैं....आपने लिखा है, ''अब तो बाकायदा लड़के कामकाजी लड़कियों की डिमांड कर रहे हैं...अब जब कामकाजी लड़कियों की डिमांड होगी तो दहेज तो अपने आप ही कम हो जाएगा... क्योंकि लड़के के परिवारवोलों को लगता है कि ये तो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी है... हर महीने तनख्वाह लाएगी''....प्रज्ञा जी, ये कहना कि.. अब तो लड़के बकायदा कामकाजी लड़कियों की डिमांड करने लगे हैं...एक शोध का विषय है। क्या सच में युवाओं का एक बड़ा तबका कामकाजी लड़कियां तलाश रहा है? इस विषय पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले आप एक मंझा हुआ शोध जरूर कर लें..क्योंकि जहां तक मेरा अनुभव है...लड़के पढ़ी-लिखी लड़कियां जरूर चाह रहे हैं...लेकिन कामकाजी लड़कियां उनकी पहली पसंद हो, ये जरूरी नहीं। अगर 'ब्यॉज फ्रैंड सर्किल' की बात करें, तो शायद मेरी सर्किल आपसे कहीं ज्यादा बड़ी है..और मुझे उनकी मानसिकता, पसंद-नापसंद और प्रेफरेंस के बारे में ज्यादा पता है।...



चलिए, तीसरी पंक्ति की बात करें...ये कुछ इस कदर है....'वे यूं ही अत्याचार नहीं सह रहीं... बल्कि उनमें अब परिस्थितियों से लड़ने का साहस भी आ गया है'.....मेरी आपसे विनती है कि 'अत्याचार' शब्द का अनावश्यक प्रयोग न करें....हो सकता है कि आपके अनुभव थोड़े कटु हो..और आपने लगातार महिलाओं पर अत्याचार होते देखा हो,..लेकिन सौभाग्य से मेरा अनुभव उल्टा रहा है....मैने शायद ही कभी पढ़े-लिखे तब्के में ऐसी ओछी मानसिकता देखी हो...हां, मैं आपकी बात को सिरे से खारिज भी नहीं करूंगा, क्योंकि अशिक्षित या यूं कहें कि सेमी एजुकेटेज सोसाइटी में कभी-कभार ऐसी चीजें देखने को जरूर मिलती हैं। अगर बात करें परिस्थितियों से लड़ने की साहस की...तो मेरी शुभकामनाएं हैं कि भगवान करे कि लड़कियां भी साहस से भरी हों...लेकिन महज पैसा आ जाने से आपकी साहस बढ़ जाए, ये जरूरी नहीं है।



मेरा आखिरी अनुरोध ये है कि महज चंद लोगों के बीच रहकर या फिर चंद किताबें और समाचार पत्रों की चटक-पटक ख़बरें पढ़कर आप कोई मानसिकता न बना लें....अनुभव लेते रहें...और उम्र और समय आने पर ही ऐसी कोई टिप्पणी दें..क्योंकि आप इंटरनेट पर लिख रही हैं..जिसे दुनिया के हर कोने में पढ़ा जा रहा है।

आपका

सितांशु शेखर

विधायक की आजा नच ले!

लोगों को कहते सुना है कि बिहार की तस्वीर बदल रही है। सीएम नीतीश कुमार और उनके दरबारी बिहार की सूरत बदलने में लगे हुए हैं। लेकिन उसी बिहार की राजधानी में उनके ही विधायक ने जो किया.. उससे उनके सारे किए धरे पर पानी फिरता दिख रहा है। भय और भ्रष्टाचार से मुक्त शासन का दावा करने वाली सरकार के लिए शनिवार की रात विधायक निवास में हुई घटना गले की हड्डी बन गया है। यहां जनता दल यूनाइटेड के नाचता जीरादेई से विधायक श्याम बहादुर सिंह रातभर बार बालाओं के साथ भौंडा डांस करते रहे। हद तो ये है कि विधायक महोदय नाचने के दौरान अपनी सुधबुध ऐसे खो चुके थे कि उन्हें ये होश नहीं रहा कि उनकी हरकतों पर कैमरों की निगाह है। मीडिया ने जब पूरे मामले से पर्दा उठा दिया तो पहले तो श्याम बहादुर सिंह होली के मौके पर मनोरंजन की बात कहते रहे... बात इस पर भी नहीं बनी तो दूसरों का उदाहरण देकर अपनी गलती ढांकने की कोशिश की और इस पर बवाल होता देख उन्होंने कैमरे के सामने कान पकड़कर और हाथ जोड़ कर माफी मांग ली। लेकिन सवाल तो ये है कि जब जनप्रतिनिधि ही ऐसे हो तो जनता से किस आचरण की उम्मीद की जाए? होली के नाम पर अश्लीलता और फूहड़ता की हद कहां तक जायज है? ऐसे लोगों को क्या सत्ता में रहने का कोई हक है?

बच्चों के दुश्मन

बहुत दुःख हुआ ये सुनकर कि बिहार के जमुई में हुए नक्सली हमलों में बच्चों का इस्तेमाल किया गया है... कहा जाता है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं तो क्या हमारा भविष्य ऐसा है? दोष किसका है... व्यवस्था का, माता-पिता का या खुद हमारा... बहुत बड़ा सवाल है ये... माता-पिता समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वे अपने नौनिहालों को किस गर्त में पहुंचा रहे हैं... और अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए अपने बच्चों का कितना गलत इस्तेमाल कर रहे हैं... आप सोच रहे होंगे कि मैं मां-बाप को दोषी क्यूं बता रही हूं... वो इसलिए क्योंकि हर मां-बाप को ये मालूम होता है कि उसका बच्चा कहां जा रहा है, क्या कर रहा है... किस तरह की शिक्षा प्राप्त कर रहा है... क्योंकि बड़े लड़के-लड़कियों को कंट्रोल करना थोड़ा मुश्किल है... लेकिन बच्चों के मामले में उनकी हर हरकत के लिए मां-बाप पूर्णतः जिम्मेदार होते हैं... इस केस में भी ट्रेनिंग के लिए भेजने वाले मां-बाप ही हैं.... या हो सकता है कि बच्चों में बहुत सारे नक्सलियों के ही बच्चे हों... जो अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने ही बच्चों की ज़िंदगी बर्बाद कर रहे हैं...
मुझे तो लगता है कि आज नक्सली अपने उद्देश्य से ही भटक गए हैं... क्योंकि उनकी लड़ाई शासन से थी... लेकिन वे आम लोगों के दुश्मन नहीं थे... लेकिन अब शासन पर दबाव बनाने के लिए वे मासूम लोगों को निशाना बना रहे हैं... स्कूल-कॉलेज जला रहे हैं... जबकि स्कूल-कॉलेज, अस्पताल उनके और उनके परिवार के लिए भी हैं.... जहां बच्चों को देश के सकारात्मक विकास में योगदान देने वाला बनाना चाहिए वहां नक्सली इन्हें बम और बंदूक चलाने की ट्रेनिंग दे रहे हैं... वो भी किसी दुश्मन को मारने के लिए नहीं बल्कि अपना ही घर उजाड़ने के लिए... काश कि अपनी इस योग्यता का उपयोग ये देश की सीमा पर दुश्मनों के छक्के छुड़ाने के लिए करते... ख़ैर सरकार को नक्सलियों पर और कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है ताकि देश आंतरिक आतंकवादियों से मुक्त हो सके.... देश का नमक खाकर उससे गद्दारी करने वाले नक्सलियों से मुक्त हो सके...

अंतर्मन


चीखूं, चिल्लाऊं या ख़ामोश रहूं

सब एक सा है,

निर्दोष न रह पाऊंगा...

इस रणभूमि में ।

हार और जीत स्वरूप बदल सकते हैं,

दामन भी.

परन्तु आदि, अन्त और कारक न बदलेगा

वही

अहम, क्रोध, पश्चाताप मिश्रित ।

धर्म अधर्म कौन तौले

सारथी कहां ?

फिर दुर्योधन की सेना भी नहीं

सभी हैं, मध्यम वर्ग से

निर्दोष भी

पापी भी ।

अन्नदाता के सवाल




देश में खेती और किसानों ने आजादी के बाद काफी तरक्की की है। आने वाले सालों में खेती के क्षेत्र में और ज्यादा विकास के लिए कोशिशें की जा रही है। गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने भी दूसरी हरित क्रांति की ज़रूरत बताई है। खेती और हमारे अन्नदाता किसानों के लिए सरकार ने कई ऐसे काम किए हैं जिन पर खुशी जाहिर की जा सकती है लेकिन कई ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब तलाशे जाना बाकी है। क्या वाकई हिंदुस्तान का किसान नई सदी की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार है? क्या देश के ज्यादातर किसान आज के दौर में ज़रूरी सुख सुविधाओं का उपभोग कर पा रहे हैं? क्या हमारे किसान नई तकनीक का सही ढंग से उपयोग करने के लिए तैयार हैं? डॉक्टर अपने बेटे को डॉक्टर बनाना चाहता है। इंजीनियर अपने बेटे को इंजीनियर बनाना चाहता है, यहां तक कि नेता भी अपने बेटे को नेता बनाना चाहते हैं लेकिन आखिर ऐसी क्या वजह है कि देश का किसान अपने बेटे को किसान नहीं बनाना चाहता। चंद अपवादों को छोड़ दें तो आज भी ज्यादातर किसान यही चाहते हैं कि उनकी आने वाली पीढ़ी खेती न करे। भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए इससे बड़ी विडंबना भला और क्या हो सकती है। हिंदुस्तान का किसान मेहनत करने से भी नहीं डरता लेकिन फिर भी खेती से मोहभंग हो रहा है। देश में खाद्यान्न का उत्पादन बढ़ा और किसानों के जीवन स्तर में भी सुधार हुआ है लेकिन ये सुधार उतना असरदार नहीं है जितना व्यापारी, नेता या नौकरीपेशा लोगों के जीवन में आया है। किसानों के हाथ में आने वाला शुद्ध मुनाफा आज भी संतोषजनक नहीं है। आखिर किसानों के साथ इतनी समस्याएं क्यों हैं? मोटी सब्सिडी दी जाती है। हजारों करोड़ का कर्ज माफ किया जाता है फिर भी हालात में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आता। दरअसल हमारी सरकारों ने वोट की खातिर भोले भाले किसानों को झुनझुने तो खूब थमाए लेकिन उनके स्थायी विकास के लिए दूरदर्शिता के साथ कोशिशें नहीं की गई। आज देश में कितने ऐसे कृषि विश्वविद्यालय हैं जो गांव में चल रहे हैं। इन विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले 95 फीसदी से ज्यादा (या इससे भी ज्यादा) छात्र खेती करने के लिए नहीं बल्कि कृषि विभाग में मालदार नौकरियां हासिल करने के लिए यहां आते हैं। ये हमारी नीतियों की खामियां नहीं तो और क्या है? कुछ ऐसे किसान जो बेहतरीन काम कर रहे हैं, लीक से हटकर काम करके मिसाल बन रहे हैं क्या उन्हें आगे बढ़ाने के लिए विश्वविद्यालयों में कुछ विशेष तरह के कोर्स तैयार नहीं किए जा सकते। अच्छे पत्रकार मीडिया स्कूलों में गेस्ट लेक्चर के लिए जा सकते हैं, अच्छे कारोबारी बिजनेस स्कूलों में पढ़ाने जा सकते हैं भले ही उन्होंने इससे जुड़ा कोर्स किया हो या न किया हो तो फिर क्या वजह है कि सफल किसानों को ऐसा ही मौका कृषि विश्वविद्यालयों में नहीं दिया जाता। इन विश्वविद्यालयों में जो लोग पढ़ा रहे हैं उनमें से कितने ऐसे हैं जो किताबी खेती से ज्यादा जानते हैं। हमने अपने किसानों को उड़ने के लिए वो आकाश नहीं दिया जिसकी उन्हें ज़रूरत है। किसानों को सक्षम बनाने की बजाए कर्ज माफ करके हमारी सरकारों ने उन्हें मुफ्त का माल थमाने की परंपरा को आगे बढ़ाने में ही भलाई समझी। किसी को भी ये नहीं भूलना चाहिए कि हिंदुस्तान जैसे कृषि प्रधान देश में किसान अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। अन्नदाता आगे नहीं बढ़ेगा तो पूरा सिस्टम चरमरा जाएगा। कई लोगों को ये समस्या और सवाल छोटे या बेवजह लग सकते हैं लेकिन हकीकत ये है कि यही हाल रहा तो हालात बद से बदतर हो जाएंगे। अब तो चुनौतियां और ज्यादा हैं आने वाले तकनीक के युग में किसानों को केवल आधुनिक मशीनें देने से काम नहीं चलेगा उन्हें इनका इस्तेमाल भी सिखाना होगा। शिक्षा का ऐसा सिस्टम बनाना होगा जिसमें किसान के लिए भी जगह हो। कृषि विश्वविद्यालयों के पूरे ढांचे को भी बदलना होगा, ताकि यहां ये संस्थान कृषि विभाग के लिए सरकारी अफसर और बाबू नहीं बेहतरीन किसान तैयार करें। जाहिर है अगर ऐसी किसी परिकल्पना को साकार करना है तो देश के सुलझे हुए और शिक्षित किसानों (जो वाकई खेती कर रहे हैं) को नीति निर्माण में भी भागीदार बनाना होगा।
 
धर्मेंद्र सिंह रघुवंशी
 
http://www.azadkalam.blogspot.com/

महंगाई बढ़ने के फायदे

अब तक जहां भी देखा, पढ़ा और सुना... हर जगह महंगाई के नुकसान ही गिनाए गए... कितनी भाषणबाज़ी, बंद और सियासत भी हो गई इस पर... लेकिन जिस तरह से हर सिक्के के दो पहलू होते हैं... इसके भी हैं... इसलिए आज मैं फोकस करुंगी इससे होने वाले फायदे पर... जिनपर संभवतः अब तक किसी का ध्यान नहीं गया है....महंगाई बढ़ने का सबसे बड़ा फ़ायदा तो ये है कि लड़कियों और महिलाओं को बांधकर रखने वाला समाज अब थोड़ा उदार हो गया है... पुरुष भी जो पहले अपने अहम के मारे होते थे... अब इसे साइड में रखकर चल रहे हैं... पहले पुरुष सोचता था... जब मैं कमा ही रहा हूं तो घर की औरत को कमाने के लिए बाहर निकलने की ज़रूरत ही क्या है... मैं क्या नामर्द हूं जो औरत की कमाई खाउंगा... औरत तो घर के कामकाज के लिए बनी है... लेकिन भला हो इस महंगाई का जिसने पुरुष को धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया है... अब उसे पता चल गया है कि अगर घर ठीक से चलाना है... सुख-सुविधा के साथ रहना है... बच्चों की अच्छी परवरिश करनी है तो दोनों को समान रूप से घर और बाहर हाथ बंटाना होगा... महंगाई ने स्त्री को खुद ही समानता का अधिकार दे दिया... जिस बात को पुरुषों को बरसों से समझाया जा रहा था कि स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं और उन्हें हर काम मिलकर करना चाहिए... वो महंगाई के कारण खुद ब खुद उनकी समझ में आ गई... अब तो बाकायदा लड़के कामकाजी लड़कियों की डिमांड कर रहे हैं...अब जब कामकाजी लड़कियों की डिमांड होगी तो दहेज तो अपने आप ही कम हो जाएगा... क्योंकि लड़के के परिवारवोलों को लगता है कि ये तो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी है... हर महीने तनख्वाह लाएगी... अब बताइए... महंगाई किस तरह से दहेज के खिलाफ भी अपना योगदान दे रही है... ऊपर से कमाने के कारण लड़की को समाज-परिवार में मान-सम्मान अलग... बोनस में... लड़की आत्मनिर्भर हुई वो अलग... और पति की सही मायनों में सहचरी भी हुई... और अब के लड़कों को भी अपनी पत्नी की प्रगति से खासी खुशी मिलती है... पैसों के लालच में नहीं बल्कि जेन्यूनली... उनकी मानसिकता भी बदल रही है... और वे चाहते हैं कि उनकी पत्नी भी किसी भी मायनों में उनसे कम न हो...महंगाई के कारण बेटा-बेटी में भेद करने वाले माता-पिता भी आजकल लड़कियों की पढ़ाई के बारे में गंभीरता से सोच रहे हैं... और युवा से लेकर पैरेंट्स तक का रुझान करियर ओरिएंटेड कोर्सेस में पढ़ रहा है... जबकि पहले आर्ट्स सब्जेक्ट ही लड़कियों को थमा दिया जाता था... या बहुत से बहुत किसी तरह बीए करवाकर मां-बाप अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेते थे... या सिलाई-कढ़ाई जैसी चीजें सिखाकर ससुराल भेज देते थे...अब भआरतीय अर्थव्यवस्था में स्त्री-पुरुष बराबर का योगदान कर रहे हैं... और हमारी अर्थव्यवस्था और हमारा देश सही मायनों में महाशक्ति बनकर उभर रहा है... लड़कियों के आत्मनिर्भर होने के कारण अब परिवार भी ज्यादा संपन्न हो रहा है... इससे ये भी फ़ायदा हो रहा है कि वे अपना मनपसंद जीवनसाथी भी चुन रही हैं... और समाज उनकी पसंद पर मुहर भी लगा रहा है... वे यूं ही अत्याचार नहीं सह रहीं... बल्कि उनमें अब परिस्थितियों से लड़ने का साहस भी आ गया है... और आपने गौर किया होगा कि महंगाई बढ़ रही है लेकिन उसके साथ ही परचेज़िंग पावर में भी गज़ब का इज़ाफ़ा हुआ है....तो जब महंगाई के इतने फ़ायदे हैं तो भला हो इस महंगाई का................

आग़ाज़

ब्लॉगिंग का दौर है, माफ़ कीजिएगा... दौर तो सूचनाओं का है। ब्लॉग ज़रिया बने हैं, अपनी बात कहने के। यहां एक समन्वित कोशिश की गई है, सवालों को उठाने की... मुद्दों की पड़ताल करने की। इस कोशिश में साथ है तमाम पत्रकार साथी... उम्मीद है यहां होने वाला हर विमर्श बेहद ईमानदार, जवाबदेह और तथ्यपरक होगा। हम लगातार सोचते हैं, लगातार लिखते हैं और लगातार कहते हैं... सोचिए, अगर ये सब मिलकर हो तो कितना बेहतर होगा। बिल्कुल यही सोच है, 'सवाल आपका है' के सृजन के पीछे। सुबह से शाम तक हम जाने कितने चेहरों को पढ़ते हैं, कितनी तस्वीरों को गढ़ते हैं, कितने लोगों से रूबरू होते हैं ? लगता है याद नहीं आ रहा ? याद कीजिए, मुद्दों की पड़ताल कीजिए... इसलिए जुटे हैं हम यहां।
शुभकामनाएं।।